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सोलहवां उद्देशक
निषिद्ध शय्या में ठहरने का प्रायश्चित्त
१. जे भिक्खू सागारियं सेज्जं उवागच्छद्द, उवागच्छंतं वा साइज्जइ । २. जे भिक्खू सउदगं सेज्जं उवागच्छइ, उवागच्छंतं वा साइज्जइ । ३.
जे भिक्खू सागणियं सेज्जं उवागच्छइ, उवागच्छंतं वा साइज्जइ । १. जो भिक्षु गृहस्थ युक्त शय्या में रहता है या रहने वाले का अनुमोदन करता है ।
२. भिक्षु पानी युक्त शय्या में रहता है या रहने वाले का अनुमोदन करता है ।
३. जो भिक्षु अग्नि युक्त शय्या में रहता है या रहने वाले का अनुमोदन करता है। [ उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है ।]
विवेचन - "ससागारिक सेज्जं = जत्थ इत्थि पुरिसा वसंति सा सागारिका, इत्थिसागारि गुरुगा सुत्तणिवातो ।" - चूर्णि ।।
स्त्री-पुरुष जहां रहते हों अथवा जहां अकेली स्त्री रहती हो या केवल स्त्रियां ही रहती हों, वह स्थान " सागारिक शय्या" है । ऐसी शय्या में भिक्षुत्रों के रहने का इस सूत्र में प्रायश्चित्त कहा है ।
व्याख्याकार ने आभूषण, वस्त्र, आहार, सुगन्धित पदार्थ, वाद्य, नृत्य, नाटक, गीत तथा शयन, आसन आदि से युक्त स्थान को " द्रव्य - सागारिक शय्या" कहा है और स्त्रीयुक्त स्थान को "भाव - सागारिक शय्या" कहा है।
अथवा जिस शय्या में रहने से सम्भोग के संकल्प उत्पन्न होने की सम्भावना हो, वह "सागारिक शय्या" कही जाती है ।
द्रव्य या भाव सागारिक शय्या में रहने से उन पदार्थों के चिन्तन या प्रेक्षण में तथा उनकी वार्ता में समय लग जाता है, जिससे स्वाध्याय, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि संयम समाचारी का परिपालन नहीं हो पाता तथा सांसारिक प्रवृत्तियों का स्मरण तथा संयम भाव में शैथिल्य आ जाने मोहकर्म का बन्ध एवं संयमविराधना होती है ।
छद्मस्थ साधक के अनुकूल निमित्त मिलने पर कभी भी मोहकर्म का उदय हो सकता है । जिससे वह संयम या ब्रह्मचर्य से विचलित हो सकता है ।
आचा. श्रु. २, अ. २ में स्त्री, बच्चे, पशु तथा श्राहारादि से युक्त शय्या में ठहरने का निषेध किया है और ऐसी सागारिक शय्या में ठहरने से होने वाले अनेक दोषों का भी कथन किया है ।
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