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[ निशीथसूत्र
वृत्ति करता है वह चिकने कर्मों का बंध करता है, जिससे वह घोर एवं दुस्तर संसार-सागर में गिरता है ।"
"केवल विभूषा के विचारों को भी ज्ञानी, प्रवृत्ति के समान ही कर्मबन्ध एवं संसार का कारण मानते हैं । इस विभूषावृत्ति से अनेक सावद्य प्रवृत्तियाँ होती हैं । यह षट्काय-रक्षक मुनि के प्राचरण योग्य नहीं है ।"
३. दश. अ. ८ गा. ५७ में संयम के लिए विभूषावृत्ति को तालपुट विष की उपमा दी गई है ।
४. उत्तरा. अ. १६ में कहा है कि-
'जो भिक्षु विभूषा के
करनी चाहिए ।
भिक्षु विभूषा और शरीर - परिमंडन का त्याग करे तथा ब्रह्मचर्यरत भिक्षु श्रृंगार के लिए वस्त्रादि को भी धारण न करे ।'
इन आगम स्थलों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मचर्य के लिये विभूषावृत्ति सर्वथा अहितकर है, कर्मबंध का कारण है तथा प्रायश्चित्त के योग्य है । अतः भिक्षु विभूषा के संकल्पों का त्याग करें अर्थात् शारीरिक शृंगार करने का एवं उपकरणों को सुन्दर दिखाने का प्रयत्न न करे । उपकरणों को संयम की और शरीर की सुरक्षा के लिए ही धारण करे एवं आवश्यक होने पर ही उनका प्रक्षालन करे ।
पन्द्रहवें उद्देशक का सारांश
१-४
५-१२
१३-६६
६७-७५
७६-९७
९८
लिए प्रवृत्ति करता है वह निर्ग्रन्थ नहीं है, अतः भिक्षु को विभूषा नहीं
५-१२ १३-६६
परुष वचन आदि से अन्य भिक्षु की आसातना करना, सचित्त श्राम्र या उनके खंड प्रादि खाना,
९९ - १५२ विभूषा के संकल्प से शरीर परिकर्म के ५४ सूत्रोक्त कार्य करना, विभूषा के संकल्प से वस्त्रादि उपकरण रखना, विभूषा के संकल्प से वस्त्रादि उपकरणों को धोना,
१५३
१५४
इत्यादि प्रवृत्तियों का लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।
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गृहस्थ से अपना काय - परिकर्म करवाना,
अकल्पनीय स्थानों में मल-मूत्र परठना,
गृहस्थ को आहार वस्त्रादि देना, पार्श्वस्थादि से प्रहार - वस्त्रादि का लेन-देन
करना ।
वस्त्र ग्रहण करने में उद्गम आदि दोषों के परिहार के योग्य पूर्ण गवेषणा न करना,
इस उद्देशक के १२७ सूत्रों के विषयों का कथन निम्न आगमों में है, यथासचित्त आम्र आदि खाने का निषेध, गृहस्थ से शरीर - परिकर्म करवाने का निषेध,
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- प्रा. श्रु. २ प्र. ७ उ. २
- प्रा. श्र. २ अ. १३
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