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पन्द्रहवां उद्देशक]
पार्श्वस्थादि को आहार देने-लेने से संसर्ग-वृद्धि होने पर क्रमशः संयम दूषित होता रहता है। अतः भिक्षु को शुद्ध संयमी सांभोगिक साधुनों के साथ ही आहार का आदान-प्रदान करना चाहिये, अन्य के साथ नहीं। गृहस्थ को वस्त्रादि देने का प्रायश्चित्त
८७. जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा देइ, देतं वा साइज्जइ ।
८७. जो भिक्षु अन्यतीथिक को या गृहस्थ को वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता ।)
विवेचन-सूत्र ७६ के समान इसका भी विवेचन जानना चाहिए । अंतर इतना ही है कि वहाँ आहार का कथन है, यहाँ वस्त्रादि का कथन है । भिक्षु गृहस्थ से आहार, वस्त्र आदि ग्रहण कर सकता है, किन्तु स्वीकार किये गये वस्त्र आदि को उसे किसी भी गृहस्थ को देना नहीं कल्पता है। पार्श्वस्थ आदि के साथ वस्त्रादि के आदान-प्रदान करने का प्रायश्चित्त
८८. जे भिक्खू पासत्थस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा देइ, देंतं वा साइज्जइ।
८९. जे भिक्खू पासत्थस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुंछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ।
९०. जे भिक्खू ओसण्णस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा देइ, देंतं वा साइज्ज।
. ९१. जे भिक्खू ओसण्णस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ।
• ९२. जे भिक्खू कुसीलस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा देइ देंतं वा साइज्जइ।
९३. जे भिक्खू कुसीलस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ।
___९४. जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा देइ, देंतं वा साइज्जई।
९५. जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा, पडिग्गहं वा, कंबलं वा, पायपुछणं वा पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा साइज्जइ।
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