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[ निशीयसूत्र
३३२]
तथापि मुख्यता उच्चार [ मल] की ही समझनी चाहिये । इस विषय का स्पष्टीकरण उद्देशक ३-४
में किया गया है ।
मलपरित्याग के लिये सामान्य रूप से भिक्षु को ग्रामादि के बाहर आवागमन रहित दृष्ट स्थान में जाने का विधान है । किन्तु प्रस्रवण के लिये दिन में या रात्रि में भिक्षुत्रों को ग्रामादि के बाहर जाने का कहीं विधान नहीं है । वे जहां ठहरते हैं वहीं निर्दोष परिष्ठापन भूमि रहती है, उसी में मूत्रादि का परित्याग कर सकते हैं ।
यदि भिक्षु के ठहरने के स्थान से संलग्न परिष्ठापनभूमि नहीं है तो दशवें. अ. ८ तथा श्राचा. श्रु. २ अ. २ के अनुसार वह स्थान भिक्षु के ठहरने योग्य नहीं है ।
सामान्य सद्गृहस्थ को भी यदि कहीं कुछ दिन के लिये ठहरना पड़ता है तो वह भी मल-मूत्र से निवृत्त होने का स्थान आस-पास में कहीं हो, वहां ठहरना चाहता है ।
संयम साधना-रत भिक्षु के तो पांचवी परिष्ठापनिकासमिति है, अतः उसे ठहरने के पहले ही परिष्ठापन योग्य भूमि को अवश्य देखना चाहिए ।
निशीथ की कुछ प्रतियों में " जाणगिहंसि" के बाद "जुग्गसालंसि" पाठ मिलता है किन्तु चूर्ण के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि "जुग्ग" तो 'जाण' का ही एक प्रकार है और उसके बाद " वाहण" शब्द से घोड़े आदि की शाला और गृह ऐसा अर्थ किया गया है।
यथा - जुगादि जाणाण अकुड्डा साला, सकुड्डं गिहं । अस्सादिया वाहणा, ताणं साला गिहं वा । - चूर्ण ||
युग्य आदि यानों के भित्ति रहित स्थान को 'शाला' कहते हैं और भित्ति सहित स्थान को 'गृह' कहते हैं । अश्व आदि को वाहन कहते हैं, उनके रहने के 'शाला' और 'गृह' को 'वाहनशाला' और 'वाहनगृह' कहते हैं । इस व्याख्या के अनुसार ही यहां मूल पाठ स्वीकार किया गया है ।
सूत्र ६७ में परिव्राजकों के श्राश्रम का कथन है और सूत्र ७४ में परिव्राजकशाला और परिव्राजकगृह का कथन है । परिव्राजकों के स्थायी निवास करने का स्थान प्राश्रम कहा जाता है। और मार्ग में विश्रान्ति हेतु ठहरने के लिए बना हुआ स्थान शाला या गृह कहा जाता है, ऐसा समझना चाहिए । कदाचित् सम्भव है लिपिदोष से "पणिय" से परिया होकर अधिक पाठ हो गया है, इस विषय का आठवें उद्देशक में स्पष्टीकरण किया गया है ।
गृहस्थ को आहार देने का प्रायश्चित्त
७६. जे भिक्खू अण्णउत्थियस्स वा, गारत्थियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देइ, देतं वा साइज्जइ ।
७६. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को अशन, पान, खादिम या स्वादिम देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है । [ उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है ।]
विवेचन - किसी भी गृहस्थ को या उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक व्रतधारी श्रावक को आहार देना भिक्षु को नहीं कल्पता है, क्योंकि उसके सावद्य योग का सम्पूर्ण त्याग नहीं होता है ।
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