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तेरहवां उद्देशक]
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६३. जो भिक्षु असंयतों के प्रारम्भ-कार्यों का निर्देशन करने वाले की प्रशंसा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-चौथे उद्देशक में सूत्र ३९ से ४८ तक पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और नित्यक भिक्षु को अपना साधु देने तथा लेने के व्यवहार का प्रायश्चित्त कहा गया है । वहां पर भाष्य गाथा १८२८ तथा १८३२ में 'पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील' यह क्रम स्वीकार किया गया है । उन सूत्रों की चूणि में भी यही क्रम है। किन्तु इस उद्देशक के भाष्य और चूर्णि में 'पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन्न' यह क्रम स्वीकार करके विस्तृत विवेचन किया है। चौथे उद्देशक से इसमें क्रम भेद क्यों है इस विषय की कोई भी चर्चा नहीं की गई है । अतः इस उद्देशक के भाष्यानुसार ही सूत्रों का क्रम रखा है।
प्रस्तुत प्रकरण में पार्श्वस्थ आदि नव के अठारह सूत्र हैं। इनमें प्रत्येक को वन्दन करने का या उसकी प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त कहा गया है। 'अवन्दनीय कौन होता है ?' इसका भाष्य गाथा ४३६७ में स्पष्टीकरण किया गया है
"मूलगुण उत्तरगुणे, संथरमाणा वि जे पमाएंति ।
ते होतऽवंदणिज्जा, तट्ठाणारोवणा चउरो॥" अर्थ-जो सशक्त या स्वस्थ होते हुए भी अकारण मूलगुण या उत्तरगुण में प्रमाद करते हैं अर्थात् संयम में दोष लगाते हैं, पार्श्वस्थ आदि स्थानों का सेवन करते हैं वे अवन्दनीय होते हैं। उन्हें वन्दन करने पर लघचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। अर्थात जो परिस्थितिवश मलगण या उत्तरगुण में दोष लगाते हैं वे अवन्दनीय नहीं होते हैं। वन्दन करने या नहीं करने के उत्सर्ग, अपवाद की चर्चा सहित विस्तृत जानकारी के लिये आवश्यकनियुक्ति गा. ११०५ से १२०० तक का अध्ययन करना चाहिये।
प्रस्तुत सूत्र की चूणि में भी अपवाद विषयक वर्णन इस प्रकार है"वंदण विसेस कारणा इमे
परियाय परिस पुरिसं, खेत्त कालं च आगमं गाउं । कारण जाते जाते, जहारिहं जस्स जं जोग्गं । वायाए-णमोक्कारो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च । संपुच्छणं, अच्छणं, छोभ वंदणं, वंदणं वा ॥ एयाइं अकुव्वंतो, जहारिहं अरिह देसिए मग्गे।
न भवइ पवयण भत्ति, अभत्तिमंतादिया दोसा ॥ गा. ४३७२-७४ भावार्थ-दीक्षा पर्याय, परिषद्, पुरुष, क्षेत्र, काल, आगम ज्ञान आदि कोई भी कारण को जानकर चारित्र गुण से रहित को भी यथायोग्य 'मत्थएण वंदामि' बोलना, हाथ जोड़ना, मस्तक झुकाना सुखसाता पूछना आदि विनयव्यवहार करना चाहिये। क्योंकि अरिहंत भगवान् के शासन में रहे हुए भिक्षु को उपचार से भी यथायोग्य व्यवहार न करने पर प्रवचन की भक्ति नहीं होती है, किन्तु अभक्ति ही होती है तथा अन्य भी अनेक दोष होते हैं।
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