________________
३००]
उत्सर्ग से वन्दनीय अवन्दनीय
असंजयं न वंदिज्जा, मायरं पियरं गुरुं । सेणावइ पसत्थारं, रायाणं देवयाणि य ॥
समणं वंदिज्ज मेहावी संजयं सुसमाहियं ।
पंचसमिय तिगुत्तं, अस्संजम दुगुच्छगं ।। ११०५-६ ।। आव. नि. भावार्थ - प्रसंयति को वन्दन नहीं करना चाहिये, वह चाहे माता, पिता, गुरु, राजा, आदि कोई भी हो ।
देवता
बुद्धिमान् मुनि सुसमाधिवंत, संयत, पांच समिति तीन गुप्ति से युक्त तथा संयम से दूर रहने वाले श्रमण को वन्दना करे ।
[ निशीथसूत्र
दंसण णाण चरित तव विणए निच्च काल पासत्था ।
एए अवंदणिज्जा जे जसघाई पवयणस्स ।। ११९१ ।। आव. नि.
भावार्थ - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय की अपेक्षा सदैव पार्श्वस्थ आदि भाव में ही रहते हैं और जिनशासन का अपयश करने वाले हैं, वे भिक्षु अवन्दनीय हैं ।
इन्हें वन्दन करने से या इनकी प्रशंसा करने से उनके प्रमादस्थानों की पुष्टि होती है, इस अपेक्षा से इन सूत्रों में प्रायश्चित्त कहा गया है । अवन्दनीय होते हुए भी प्रशंसायोग्य गुण निम्न हो सकते हैं--बुद्धि, नम्रता, दानरुचि, प्रतिभक्ति, लोकव्यवहारशील, सुन्दरभाषी, वक्ता, प्रियभाषी आदि । किन्तु संयम में उद्यम न करने वाले की इन गुणों के होते हुए भी प्रशंसा नहीं करना किन्तु तटस्थ भाव रखना चाहिये । प्रशंसा करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त प्राता है ।
- नि. भा. गा. ४३६३-६४
१. काहिय - - (काथिक ) -
पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और नित्यक के स्वरूप का विवेचन चतुर्थ उद्देशक में किया गया है, वहां से जान लेना चाहिये ।
काfथक, प्रेक्षणीक, मामक और सम्प्रसारिक का स्वरूप इस प्रकार है
"सज्झायादि करणिज्जे जोगे मोत्तु जो देसकहादि कहातो कहेति सो "काहिओ" ।"
स्वाध्याय आदि आवश्यक कृत्यों को छोड़ करके जो देशकथा आदि कथाएं करता रहता है, वह 'काथिक' कहा जाता है । - चूर्णि भा. ३, पृ. ३९८
Jain Education International
आहार, वस्त्र, पात्र, यश या पूजा-प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिये जो धर्मकथा कहता है अथवा जो सदा धर्मकथा करता ही रहता है, वह भी 'काथिक' कहा जाता है । - भा. गा. ४३५३
समय का ध्यान न रहते हुए धर्मकथा करते रहने से प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, ध्यान आदि कार्य यथासमय नहीं किये जा सकते, जिससे संयमी जीवन अनेक दोषों से दूषित हो जाता है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org