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तेरहवां उद्देशक]
४५ बिना रोग के चिकित्सा करने का प्रायश्चित्त । ४६-६३ पार्श्वस्थ आदि को वन्दना करने का तथा उनकी प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त । ६४-७८ धातृ-पिंड आदि भोगने का प्रायश्चित्त ।
संक्षिप्त में उत्पादन दोष रहित आहार ग्रहण करने का कथन प्राव. अ. ४ तथा प्रश्न. श्रु. २, अ. १ में है। किन्तु वहां अलग-अलग नाम एवं संख्या नहीं कही गई है । पिंडनियुक्ति में इनका नाम एवं दृष्टान्तयुक्त विस्तृत विवेचन है ।
इसी तरह पार्श्वस्थ आदि के साथ परिचय करने का निषेध सूय. श्रु. १. अ. ९ तथा अ. १० में है किन्तु वन्दन एवं प्रशंसा का स्पष्ट निषेध नहीं है ।
॥ तेरहवां उद्देशक समाप्त ॥
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