________________
पन्द्रहवां उद्देशक
[३२९ निशीथसूत्र में
आचारांगसूत्र में १. अंबं
१. अंब भित्तं २. अंबं पेसि
२. अंबं पेसि ३. अंबभित्तं
३. अंबचोयगं ४. अंबसालगं
४. अंबसालगं ५. अंबडगलं
५. अंबडगलं ६. अंबचोयगं दोनों प्रागमों में कुछ शब्दों की व्याख्या भी भिन्न-भिन्न हैआचारांग में
निशीथ में अंबसालग = अाम्र का रस
आम्र की छाल अंबचोयग = अाम्र की छाल
आम्र की केसरा पूनः आये 'अंबं' शब्द के अनेक अर्थों की चूर्णिकार ने इस प्रकार कल्पना की है१. अखंड आम्र, किंचित् भी खंडित नहीं। २. प्रथम सूत्रचतुष्क में बद्धस्थिक आम्र है, द्वितीयसूत्र चतुष्क में अबद्धस्थिक आम्र है । ३. प्रथम चतुष्क में अखंडित पाम्र है, द्वितीय चतुष्क में खंडित आम्र है। ४. प्रथम चतुष्क में अविशिष्ट [सामान्य] कथन है, द्वितीय चतुष्क में विशिष्ट कथन है ।
इत्यादि विकल्पों को देखने से यही लगता है कि प्राचारांग का पाठ शुद्ध है और उनके अर्थ भी संगत प्रतीत होते हैं। निशीथ में संभव है कि लिपि-प्रमाद से "अंबं" शब्द दूसरी बार पा गया है।
इन सूत्रों में सचित्त आम्र व आम्र-विभागों के खाने का अथवा चूसने का तथा सचित्त प्रतिबद्ध [गुठली युक्त] को खाने का प्रायश्चित्त कहा है । अतः पाम्र अचित्त हो और गुठली निकाल दो गई हो तो वैसे आम्र खाने या चूसने का प्रायश्चित्त नहीं है।
___ खाने का तात्पर्य है दांतों से चबाना तथा चूसने का अर्थ है दांतों से बिना चबाये मुख में रस खींच कर निगलना।
आम्रवन में ठहरने का व आम्र खाने आदि का विशेष वर्णन आचा. श्रु. २ अ. ७ उ. २ में देखें। गृहस्थ से शरीर का परिकर्म कराने का प्रायश्चित्त
१३ से ६६. जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो पाए आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा, आमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइज्जइ एवं तइय उद्देसग गमेणं णेयव्वं जाव जे भिक्खू गामाणुगामं दुइज्जमाणे अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा अप्पणो सीसवारियं कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ।
१३ से १६. जो भिक्षु अन्यतोर्थिक या गृहस्थ से अपने पांवों का एक बार या अनेक बार "आमर्जन" करवाता है या करवाने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार तीसरे उद्देशक के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org