Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 414
________________ ३१४] [निशीथसूत्र __ लकड़ी के पात्र जहां सुलभ हों उधर से विचरण करते हुए कोई भिक्षु आचार्य के पास प्रा रहे हों या उधर विचरण करने जा रहे हों, उनके साथ गच्छ की आवश्यकता के लिये कुछ अतिरिक्त पात्र मंगा लिये जाते हैं। कभी अत्यन्त आवश्यक हो जाने पर पात्र लाने के लिये ही भिक्षुओं को भेजा जा सकता है। जितने पात्र मंगाये गये हों उससे अधिक भी मिल जाएं और उचित समझे तो वह ला सकता है किन्तु प्राचार्य की आज्ञा बिना किसी को देना नहीं कल्पता है । जाते समय ही मार्ग में कोई अन्य भिक्षु मिल जाय और वह कहे कि और अधिक मिलते हों तो मेरे लिये भी कुछ पात्र लाना । उस समय यदि प्राचार्य निकट हों तो उनकी आज्ञा लेकर के ही लाना चाहिए । यदि प्राचार्य दूर हों तो बिना अाज्ञा भी ला सकता है किन्तु लाने के बाद उनकी आज्ञा लेकर के ही मंगाने वाले को दे सकता है । उन्हें बताये बिना और उनसे पूछे बिना किसी को देने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है। भाष्यकार ने यह भी स्पष्टीकरण किया है कि मार्ग में किसी साधु की विशेष परिस्थिति देखकर पात्र देना आवश्यक समझे तो गीतार्थ साधु स्वयं भी निर्णय करके पात्र दे सकता है और बाद में आचार्य को पात्र देने की जानकारी दे सकता है। एक गच्छ में अनेक प्राचार्य, अनेक वाचनाचार्य, प्रव्राजनाचार्य प्रादि हों तो सामान्य रूप से प्राचार्य का निर्देश करके पात्र लाना 'उद्देश' है तथा किसी प्राचार्य का नाम निर्देश करके पात्र लाना 'समुद्देश' है। अतिरिक्त लाये गये पात्र प्राचार्य की सेवा में समर्पित करना-देना' है और निमन्त्रण करना 'निमन्त्रण' है । अन्य किसी को देना हो तो उसके लिए आज्ञा प्राप्त करना 'पृच्छना' है। व्यवहार सूत्र उद्दे. ८ में ऐसे अतिरिक्त पात्र दूर क्षेत्र से लाने का कल्प बताया है । वहाँ एक दूसरे के लिए पात्र लाने का सामान्य विधान है साथ ही गणी को पूछे बिना या निमन्त्रण दिये बिना किसी को पात्र देने का निषेध भी किया है । उन्हें पूछकर निमन्त्रण करके बाद में अन्य को देने का विधान किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में गणी की आज्ञा के बिना पात्र लाने एवं देने का प्रायश्चित्त कहा है। अतिरिक्त पात्र देने न देने का प्रायश्चित्त ६. जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गहं खुड्डगस्स वा, खुड्डियाए वा, थेरगस्स वा, थेरियाए वा, अहत्थच्छिण्णस्स, अपायच्छिण्णस्स, अकण्णच्छिण्णस्स, अणासच्छिण्णस्स, अणो?च्छिण्णस्स, सक्कस्स देइ, देंतं वा साइज्जइ। . ७. जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गह, खुड्डगस्स वा, खुड्डियाए वा, थेरगस्स वा, थेरियाए वा, हत्थच्छिण्णस्स, पायच्छिण्णस्स, कण्णच्छिण्णस्स, णासच्छिण्णस्स, ओट्ठच्छिण्णस्स, असक्कस्स न देइ, न देंतं वा साइज्जइ। ६. जो भिक्षु बाल साधु-साध्वी के लिए, अथवा वृद्ध साधु-साध्वी के लिए जिनके कि हाथ, पैर, कान, नाक, होंठ कटे हुए नहीं हैं, सशक्त है, उसे अतिरिक्त-पात्र रखने की अनुज्ञा देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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