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तेरहवां उद्देशक ]
चौमासी प्रायश्चित्त आता है । शिष्य लेन-देन का कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है तथा वांचणी लेन-देन का भी प्रायश्चित्त नहीं है ।
प्रथम श्रेणी वाले की प्ररूपणा ही अशुद्ध है । अतः प्रागमविपरीत प्ररूपणा वाला होने से वह उत्कृष्ट दोषी है ।
द्वितीय श्रेणी वाले - महाव्रत, समिति, गुप्तियों के पालन में दोष लगाते हैं और अनेक ग्राचार सम्बन्धी सूक्ष्म स्थूल दूषित प्रवृत्तियां करते हैं, अतः ये मध्यम दोषी हैं ।
तीसरी श्रेणी वाले एक सीमित तथा सामान्य आचार-विचार में दोष लगाने वाले हैं अतः ये जघन्य दोषी हैं । अर्थात् कोई केवल मुहूर्त बताता है, कोई केवल ममत्व करता है, कोई केवल विकथाओं में समय बिताता है, कोई दर्शनीय स्थल देखता रहता है। ये चारों मुख्य दोष नहीं हैं पितु सामान्य दोष
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मस्तक व आँख उत्तमांग हैं । पाँव, अंगुलियाँ, नख, अधमांग हैं । अधमांग में चोट आने पर या पाँव में केवल कीला गड़ जाने पर भी जिस प्रकार शरीर की शांति या समाधि भंग हो जाती है । इसी प्रकार सामान्य दोष से भी संयम-समाधि तो दूषित होती ही है ।
इस प्रकार तीनों श्रेणियों वाले दूषित प्रचार के कारण शीतलविहारी (शिथिलाचारी) कहे हैं किन्तु जो इन अवस्थाओं से दूर रहकर निरतिचार संयम का पालन करते हैं वे उद्यतविहारी -- विहारी (शुद्धाचारी ) कहलाते हैं ।
शुद्धाचारी - जो ग्रागमोक्त सभी प्राचारों का पूर्ण रूप से पालन करता है । किसी कारणवश अपवाद रूप दोष के सेवन किये जाने पर उसका प्रायश्चित्त स्वीकार करता है । कारण समाप्त होने पर उस प्रवृत्ति को छोड़ देता है और आगमोक्त श्राचारों की शुद्ध प्ररूपणा करता है, उसे 'शुद्धाचारी' कहा जाता है ।
शिथिलाचारी - जो आगमोक्त आचारों से सदा विपरीत आचरण करता है, उत्सर्ग अपवाद की स्थिति का विवेक नहीं रखता है, विपरीत आचरण का प्रायश्चित्त भी नहीं लेता है अथवा आगमोक्त आचारों से विपरीत प्ररूपणा करता है, उसे 'शिथिलाचारी' कहा जाता है ।
आगमोक्त विधिनिषेधों के अतिरिक्त क्षेत्र काल आदि किसी भी दृष्टिकोण से जो किसी समुदाय की समाचारी का गठन किया जाता है उसके पालन से या न पालने से किसी को शुद्धाचारी या शिथिलाचारी समझना उचित नहीं है । किन्तु जिस समुदाय में जो रहते हैं, उन्हें उस संघ की आज्ञा से उन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है । पालन न करने पर वे प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं ।
आगम विधानों के अतिरिक्त प्रचलित समाचारियों के कुछ नियम
खाना ।
१. प्रचित्त कंद-मूल मक्खन, कल का बना भोजन एवं बिस्कुट आदि नहीं लेना ।
२. कच्चा दही और द्विदल के पदार्थों का संयोग नहीं करना और ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं
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