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तेरहवां उद्देशक ]
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अत: विकथाओं में समय बिताने वाला, प्रहारादि के लिये धर्मकथा करने वाला और सदा धर्मकथा ही करते रहने वाला 'काथिक' कहा गया है ।
२. पासणिय ( प्रेक्षणिक)
जणवयववहारे, डणट्टादिसु वा जो पेक्खणं करेति सो पासणिओ ।
जनपद आदि में अनेक दर्शनीय स्थलों का या नाटक नृत्य आदि का जो प्रेक्षण करता है वह संयम लक्ष्य तथा जिनाज्ञा की उपेक्षा करने से 'पासणिय' प्रेक्षणिक कहा जाता है । चूर्णि ।
अथवा जो अनेक लौकिक (सांसारिक) प्रश्नों के उत्तर देता है या सिखाता है; उलझी गुत्थियां, प्रलिकाएं बताने रूप कुतूहल - वृत्ति करता है, वह भी 'पासणिय' कहा जाता है । चूर्णि । दूसरी वैकल्पिक परिभाषा का अर्थ तो 'कुशील' का द्योतक है, अतः यहां प्रथम परिभाषा ही प्रासंगित है ।
३. मामक – “ममीकार करेंतो मामओ"
गाथा - आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल गामे ।
पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणति मामओ सो उ ।। ४३५९ ।।
भावार्थ - जो आहार में आसक्ति रखता है, संविभाग नहीं करता है, निमन्त्रण नहीं देता है, उपकरणों में अधिक ममत्व रखता है, किसी को अपनी उपधि के हाथ नहीं लगाने देता है, शरीर में ममत्व रखता है, कुछ भी कष्ट परीषह सहने की भावना न रखते हुए सुखैषी रहता है ।
स्वाध्यायस्थल व परिष्ठापनभूमि में भी अपना अलग स्वामित्व रखते हुए दूसरों को वहां बैठने का निषेध करता है। मकान में, सोने, बैठने या उपयोग में लेने के स्थानों में अपना स्वामित्व रखता है, दूसरों को उपयोग में नहीं लेने देता है । श्रावकों के ये घर या गांव आदि मेरी सम्यक्त्व में हैं । इनमें कोई विचर नहीं सकता इत्यादि संकल्पों से गांवों या घरों को मेरे क्षेत्र, श्रावक ऐसी चित्तवृत्ति रखता हुआ ममत्व करता है, वह 'मामक' कहलाता है । क्योंकि ममत्व करना साधु के लिये निषिद्ध है ।
ममत्व नहीं करने के प्रागमवाक्य --
१. अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं । २. समणं संजयं दंतं, हणिज्जा कोई कत्थइ । णत्थि जीवस्स णासुत्ति, एवं पेहेज्ज संजए | ३. जे ममाइयमई जहाइ, से चयइ ममाइयं,
हुदिप मुणी, जस्स णत्थि ममाइयं ।
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- दश. प्र. ६, गा. २२
- आचा. श्रु १, प्र. २, उ. ६
किसी भी पदार्थ --गांव, घर, शरीर, उपधि आदि में जिसका ममत्व अर्थात् प्रासक्तिभाव नहीं है, वास्तव में वही वीतरागमार्ग को जानने समझने वाला मुनि है ।
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- उत्तरा प्र २, गा. २७
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