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[ निशीथसूत्र
३३. जो भिक्षु दो कोश की मर्यादा से आगे प्रशन, पान, खाद्य या स्वाद्य ले जाता है या ले जाने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है | )
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विवेचन- -आहार ले जाने या लाने की उत्कृष्ट क्षेत्रमर्यादा का विधान उत्त. प्र. २६ में किया गया है तथा बृहत्कल्प उद्देशक ४ में अर्द्ध योजन से आगे आहार ले जाने का निषेध किया गया है । यदि भूल से चला जाये तो उस आहार को खाने का निषेध किया है और खाने पर प्रायश्चित्त भी कहा है । प्रस्तुत सूत्र में केवल मर्यादा से आगे ले जाने का ही प्रायश्चित्त कहा है ।
दो कोश से आगे ले जाने से होने वाले दोष -
१. पानी की मात्रा अधिक ली जायेगी ।
२. वजन अधिक हो जाने से श्रम अधिक होगा । ३. सीमा न रहने से संग्रहवृत्ति बढ़ेगी ।
४. खाद्य पदार्थों की प्रासक्ति की वृद्धि होगी ।
५. अन्य अनेक दोषों की परम्परा बढ़ेगी ।
अर्द्धयोजन की क्षेत्रमर्यादा आगमोक्त है, संग्रहवृत्ति से बचने के लिये यह मर्यादा कही गई है । यह सीमा उपाश्रयस्थल से चौतरफी की है अर्थात् भिक्षु अपने उपाश्रय से चारों दिशा में अर्द्ध योजन तक भिक्षा के लिये जा सकता है और विहार करने पर अपने उपाश्रय से आहार- पानी अर्द्ध योजन तक साथ में ले जा सकता है ।
यह क्षेत्र मर्यादा आत्मांगुल अर्थात् प्रमाणोपेत मनुष्य की अपेक्षा से है
४ कोस
२ कोस
एक योजन अर्द्ध योजन एक कोस
दो कोस
२००० धनुष
४३ माइल = ७ किलोमीटर
बृहत्कल्प उ. ३ में आधा कोस एक-एक दिशा में अधिक कहा गया है । वह स्थंडिल के लिये जाने की अपेक्षा से कहा गया है ।
एक दिशा में अढ़ाई कोस और दो दिशाओं को शामिल करने से पांच कोस का अवग्रह कहा गया है । इसलिए क्षेत्रसीमा परिमाण का मुख्य केन्द्र भिक्षु का निवासस्थल - उपाश्रय माना गया है
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"सेसे सकोस मंडल, मूल निबंध अणुमुयंताणं ।" - बृ. भा. गा. ४८४५
अर्थ-किसी दिशा में पर्वत, नदी या समुद्र आदि की बाधा न हो तो अपने मूलस्थान को न छोड़ते हुए एक कोश और एक योजन की लम्बाई का मंडल रूप अवग्रह समझना चाहिए । अर्थात् चारों दिशाओं में जो मंडलाकार क्षेत्र बनता है उसका व्यास ( लंबाई ) एक कोश और एक योजन का होना चाहिए ।
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