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[निशीथसूत्र इस गाथा में पात्र के अतिरिक्त सभी पदों का संग्रह किया गया है तथा मणि के साथ आभूषण का एवं 'सुत्त' शब्द से इक्षुरस का भी कथन किया गया है।
दशवकालिक सूत्र अ. ३ में दर्पण आदि में अपने प्रतिबिम्ब को देखना साधु के लिए अनाचरणीय कहा है ।
___ व्याख्याकार ने दर्पण आदि में अपना मुख (चेहरा) देखने में अनेक दोषों की सम्भावना बताई है । यथा-अपने रूप का अभिमान करेगा, अपने को रूपवान् देखकर विषयेच्छा होगी। विरूप देखकर निदान करेगा, वशीकरणादि सीखेगा या शरीरबकुश बनेगा, हर्ष-विषाद करेगा। दर्पण देखते समय कोई गृहस्थ आदि की दृष्टि पड़ जाय तो साधु की या संघ की होलना होगी।
अतः भिक्षु सूत्रोक्त पदार्थों में या ऐसे अन्य स्थलों में अपना मुख देखने का संकल्प भी न करे। किन्तु आत्मभाव में लीन रहकर संयम का और जिनाज्ञा का पालन करें । वमन आदि औषधप्रयोग करने का प्रायश्चित्त
४२. जे भिक्खू वमणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ । ४३. जे भिक्खू विरेयणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ । ४४. जे भिक्खू वमण-विरेयणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ । ४५. जे भिक्खू आरोगियपडिकम्मं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ । ४२. जो भिक्षु वमन करता है या वमन करने वाले का अनुमोदन करता है। ४३. जो भिक्षु विरेचन करता है या विरेचन करने वाले का अनुमोदन करता है। ४४. जो भिक्षु वमन और विरेचन करता है या करने का अनुमोदन करता है।
४५. जो भिक्षु रोग न होने पर भी उपचार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है।)
विवेचन यहाँ चौथे सूत्र में बिना रोग के औषध-उपचार करने का प्रायश्चित्त कहा है । इसी प्राशय से वमन, विरेचन के तीन सूत्र भी समझने चाहिए । अर्थात् किसी कारण के बिना या रोग के बिना कोई भी औषधप्रयोग नहीं करना चाहिए, यही इन चारों सूत्रों का सार है।
कारण होने पर औषध लेने के समान वमन-विरेचन भी किया जा सकता है। यह भी उपचार का ही एक प्रकार है ।
बिना रोग के उपचार करने से शरीर-संस्कार की भावना बढ़ती है और संयम की भावना घटती है । बिना रोग के औषध करने से कभी नया रोग भी उत्पन्न हो सकता है । अधिक वमन या विरेचन होने पर मृत्यु भी हो सकती है। परिष्ठापनभूमि के न होने से या अधिक दूर होने से अथवा गृहस्थ के बैठे रहने के कारण बाधा रोकने पर अन्य रोगादि होने की भी सम्भावना रहती है। बाधा
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