________________
२८२ ]
महानदी पार करने का प्रायश्चित्त
४४. जे भिक्खू इमाओ पंच महण्णवाओ महाणईओ उद्दिट्ठाओ, गणियाओ वंजियाओ, अंतोमासस्स दुक्खुतो वा तिक्खुतो वा उत्तरइ वा, संतरइ वा, उत्तरंतं वा संतरंतं वा साइज्जइ । तं जहा
१. गंगा, २. जउणा, ३. सरयू ४. एरावई, ५. मही । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारद्वाणं उग्धाइयं ।
४४. गंगा, यमुना, सरयू, ऐरावती और माही ये पांच महानदियां कही गई हैं, गिनाई गई हैं, प्रसिद्ध हैं, इनको जो भिक्षु एक मास में दो बार या तीन बार पैदल पार करता है अथवा नाव आदि से पार करता है या पार करने वाले का अनुमोदन करता है ।
इन ४४ सूत्रोक्त स्थानों का सेवन करने वाले को लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है । विवेचन - मासकल्प विहारेण सकृत् कल्पते एव उत्तरितु । तस्मिन्नेव मासे द्वि-तृतीय वारा प्रतिषेधः । - चूर्णि ।
[ निशीथसूत्र
मासकल्प विहार की अपेक्षा एक महीने में एक बार एक नदी उतरना कल्पता है किन्तु उसी महीने में दो-तीन बार उतरना नहीं कल्पता है ।
आठ महीनों में कुल नौ बार उतरने पर प्रायश्चित्त नहीं आता है । जिसमें प्रथम महीने में दो बार और शेष सात महीनों में सात बार नदी पार की जा सकती है ।
दशाश्रुतस्कंध दशा २ में एक मास में तीन बार और एक वर्ष में १० वार उपर्युक्त ये बड़ी नदियां पार करने का सबल दोष कहा है ।
बृहत्कल्पसूत्र उद्देशक ४ में इन बड़ी नदियों में एक मास में दो या तीन बार उतरने का निषेध है । साथ ही अर्द्ध जंघा प्रमाण जल वाली छोटी नदियों को पार करना कल्पनीय कहा है ।
दुक्खुत्तो तिक्खुत्तो-दो शब्द कहने का आशय यह है कि प्रथम मास में तीन बार और शेष मासों में दो-दो बार महा नदी में उतरने या पार करने पर प्रायश्चित्त आता है । पहले महीने में दो बार और शेष महीनों में एक-एक बार उतरने पर शबल दोष नहीं होने का तथा प्रायश्चित्त नहीं आने का कारण चूर्णिकार ने मासकल्प विहार बताया है । विशेष स्पष्टीकरण के लिए दशा. द. २ का विवेचन देखें |
Jain Education International
उत्तरणं संतरणं - बाहाहिं व पाएहिं व उत्तरणं, संतरं तु संतरणं । तं पुण कुभे दइए, नावा उडुपाइएहिं वा ।। ४२०९ ।।
भुजाओं से या पैरों से पार करना 'उत्तरण' कहलाता है । कुंभ, दीवड़ी नावा, छोटी नावा, तुम्बा आदि के द्वारा पार करना 'संतरण' कहलाता है ।
इमा
पंच-पंचहं गहणेणं, सेसातो सूतिता महासलिला ।
तत्थ पुरा विहरि ण य ताम्रो कयाइ सुक्खति ।। ४२११ ।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org