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[ निशीथसूत्र
शब्द, रूप आदि इन्द्रियविषयों की आसक्ति का निषेध एवं उनसे उदासीन रहने के विभिन्न प्रागम वाक्य इस प्रकार हैं-
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१. जो प्रमाद गुणार्थी (इन्द्रियविषयों का इच्छुक ) होता है, वही अपनी आत्मा को करने वाला कहा जाता है ।
- प्राचा. श्रु. १ अ. १ उ. ४
२. जो इन्द्रियों के विषय हैं वे ही संसार के मूल कारण हैं । जो संसार के मूल कारण हैं। इन्द्रियों के विषय ही हैं । इन इन्द्रियों के विषयों का इच्छुक महान् दुःखाभिभूत होकर उनके वशीभूत होता है और प्रमादाचरण करता है । - प्राचा. श्रु. १ अ. २ उ. १.
३. जो शब्दादि विषय हैं वे संसार आवर्त हैं, जो संसार - आवर्त के कारण हैं वे शब्दादि विषय ही हैं । लोक में ऊपर, नीचे, तिरछे एवं पूर्व आदि दिशाओंों में जीव रूपों को देखकर और शब्दों को सुनकर उनमें मूच्छित होते हैं, यही संसार का कारण कहा गया है । जो इन विषयों से अगुप्त है, वह भगवदाज्ञा से बाहर है और पुनः शब्दादि विषयों का सेवन करता है । आचा. श्रु १. अ. १ उ. ५ ४. इन इन्द्रियविषयों पर विजय प्राप्त करना अति कठिन है.... जो ये इन्द्रियविषयों के इच्छुक प्राणी हैं, वे उनके प्राप्त न होने पर या नष्ट हो जाने पर शोक करते हैं, क्रूरते हैं, मांसू बहाते हैं, पीड़ित होते हैं और महा दुःखी हो जाते हैं ।
- प्राचा. १ अ. २ उ. ५. ५. जिसने शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्शो की प्रासक्ति के परिणामों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनका त्याग कर दिया है वह साधक श्रात्मार्थी है, ज्ञानी है, शास्त्रज्ञ है, धर्मी है और संयमवान् है । — आचा. श्रु. १ अ. २ उ. १ ६. शब्दों और रूपों के प्रति उपेक्षाभाव रखता हुआ मुनि जन्म-मरण से विमुख रहकर संयमाचरण द्वारा जन्म मरण से छूट जाता है । - प्रा. श्रु. १, प्र. ३, उ. १ आचा. श्रु. १ प्र. ३ उ. २
७. जीव इन्द्रियविषयों में गृद्ध होकर कर्मों का संचय करते हैं ।
८. चक्षु आदि इन्द्रियों का निरोध करने वाले कोई मुनि पुनः मोहोदय से कर्मबंध के कारणभूत इन इन्द्रियविषयों में गृद्ध हो जाते हैं । वे बाल जीव कर्मबंधन से मुक्त नहीं होते, संयोगों का उल्लंघन नहीं कर पाते, मोह रूपी अंधकार में रहकर मोक्ष मार्ग को नहीं समझ पाते, वे भगवदाज्ञा की आराधना के लाभ को भी प्राप्त नहीं कर सकते । - आचा. श्र. १ अ. ४. उ. ४
९. अल्प सामर्थ्य वाले के लिए इन्द्रियविषयों का त्याग करना अत्यन्त कठिन है ।
- प्राचा. श्रु. १ अ. ५. उ. १
१०. अनेक संसारी प्राणी रूप आदि में गृद्ध होकर अनेक योनियों में परिभ्रमण कर रहे हैं । वे प्राणी वहां अनेक कष्टों को प्राप्त होते हैं । - प्राचा. श्रु. १. अ. ५ उ. १ ११. बाल जीव रूपादि में प्रासक्त होकर या हिंसादि में आसक्त होकर धर्म से च्युत हो जाते हैं और संसार में भ्रमण करते हैं । - प्राचा. श्रु. १ प्र. ५. उ. ३ रूपादि में प्रासक्त जीव दुःखी होकर करुण विलाप करते हैं । फिर भी उन कर्मों के फल से वे मुक्त नहीं हो सकते । - आचा. श्र. १ अ. ६ उ. १.
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