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ग्यारहवां उद्देशक]]
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१. उलूक-काक-मार्जार-गृद्ध-संबर-शूकराः। ___ अहि-वृश्चिक-गोधाश्च, जायंते रात्रिभोजनात् ॥१॥ २. एकभक्ताशनान्नित्यं, अग्निहोत्रफलं लभेत् ।
अनस्तभोजनो नित्यं, तीर्थयात्राफलं लभेत् ॥२॥ ३. नैवाहुतिर्न च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् ।
दानं न विहितं रात्रौ, भोजनं तु विशेषतः ॥३॥ ४. पतंग-कीट-मंडूक-सत्वसंघातघातकम् । अतोऽतिनिन्दितं तावत् धर्मार्थ निशिभोजनम् ॥४॥
-योगशास्त्र अ.३ रात्रि में प्राहार रखने व खाने का प्रायश्चित्त
७७-जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणागाढे परिवासेइ, परिवातं वा साइज्जइ।
७८-जे भिक्खू परिवासियस्स असणस्स वा पाणस्स वा खाइमस्स वा साइमस्स वा तयप्पमाणं वा भूइप्पमाणं वा बिंदुप्पमाणं वा आहारं आहारेइ, आहारतं वा साइज्जइ।
७७. जो भिक्षु आगाढ परिस्थिति के अतिरिक्त अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य रात्रि में रखता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है।
__ जो भिक्ष अनागाढ परिस्थिति से रात्रि में रखे हुए प्रशन, पान, खाद्य या स्वाद्य का त्वक्प्रमाण (चुटकी), भूति प्रमाण अथवा बिन्दुप्रमाण भी आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-भिक्षु अशनादि चार, तीन, दो या एक भी प्रकार का आहार रात्रि में अनागाढ स्थिति में रखे तो उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।
आगमों के अनेक स्थलों में प्रशनादि संग्रह अर्थात् रात्रि में आहार रखने का निषेध है । प्रस्तुत सूत्रद्वय में प्रागाढ परिस्थिति में रखने का प्रायश्चित्त न कहते हुए अनागाढ स्थिति में रात्रि के समय आहार रखने का प्रायश्चित्त कथन है और अनागाढ परिस्थिति में रखे गये आहार में से कुछ भी खाने या पीने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है।
आगाढ परिस्थिति में रखे गये अशनादि के भी किचित् मात्र खाने पर प्रायश्चित्त कहा गया है इसलिये आगाढ परिस्थिति का यह अर्थ समझना चाहिये कि अन्य कोई उपाय न हो सकने से रात्रि में अशनादि रखने का प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु उसे खाने का प्रायश्चित्त है । वह आगाढ परिस्थिति इस प्रकार सम्भव है, यथा
१. सायंकालीन गोचरी लाने के बाद महावात (अांधी, तूफान) युक्त वर्षा आ जाय और अंधेरा हो जाने से आहार नहीं कर सके, फिर सूर्यास्त हो जाए और वर्षा न रुके । इस कारण से आहार रात्रि में रखना पड़े।
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