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[निशीथसूत्र
९. सुकृतज्ञ १०. विनयवान् ११. राज्य-अपराध रहित १२. सुडौल शरीर १३. श्रद्धावान् १४. स्थिर चित्त वाला १५. सम्यग् उपसम्पन्न ।
इन गुणों से सम्पन्न को दीक्षा देनी चाहिये, अथवा इनमें से एक-दो गुण कम भी हों तो बहुगुणसम्पन्न को दीक्षा दी जा सकती है।
-अभि. राजेन्द्र कोष “पवज्जा" पृ. ७३६ दीक्षादाता के लक्षण
उपर्युक्त पन्द्रह गुण सम्पन्न तथा १६. विधिपूर्वक प्रवजित, १७. सम्यक् प्रकार से गुरुकुलवाससेवी, १८. प्रव्रज्या-ग्रहण काल से सतत अखंड शीलवाला, १९. परद्रोह रहित, २०. यथोक्त विधि से ग्रहीत सूत्र वाला, २१. सूत्रों, अध्ययनों आदि के पूर्वापर सम्बन्धों में निष्णात २२. तत्वज्ञ, २३. उपशांत, २४. प्रवचनवात्सल्ययुक्त, २५. प्राणियों के हित में रत, २६. प्रादेय वचन वाला, २७. भावों की अनुकूलता से शिष्यों की परिपालना करने वाला, २८. गम्भीर (उदारमना) २९. परीषह आदि आने पर दीनता न दिखाने वाला, ३०. उपशमलब्धि सम्पन्न (उपशांत करने में चतुर)
उपकरणलब्धिसम्पन्न, स्थिरहस्तलब्धिसम्पन्न, ३१. सूत्रार्थ-वक्ता, ३२. स्वगुरुअनुज्ञात गुरु पद वाला। • ऐसे गुण सम्पन्न विशिष्ट साधक को गुरु बनाना चाहिए।
-अभि. राजेन्द्र कोष “पवज्जा" पृ. ७३४ दीक्षार्थी के प्रति दीक्षादाता के कर्तव्य
१. दीक्षार्थी से पूछना चाहिये कि- "तुम कौन हो ? क्यों दीक्षा लेते हो? तुम्हें वैराग्य उत्पन्न कैसे हुआ ?" इस प्रकार पूछने पर योग्य प्रतीत हो तथा अन्य किसी प्रकार से अयोग्य ज्ञात न हो तो उसे दीक्षा देना कल्पता है ।
२. दीक्षा के योग्य जानकर उसे यह साध्वाचार कहना चाहिए यथा-१. प्रतिदिन भिक्षा के लिये जाना, २. भिक्षा में अचित्त पदार्थ लेना, ३. वह भी एषणा आदि दोषों मे रहित शुद्ध ग्रहण करना, ४. लाने के बाद बाल-वृद्ध आदि को देकर समविभाग से खाना, ५. स्वाध्याय में सदा लीन रहना, ६. आजीवन स्नान न करना, ७. भूमि पर या पाट पर शयन करना, ८. अट्ठारह हजार (या हजारों) गुणों को धारण करना, ९. लोच आदि के अनेक कष्टों को सहन करना आदि । यदि वह यह सब सहर्ष स्वीकार कर ले तो उसे दीक्षा देनी चाहिये ।
-नि. चूणि पृ. २७८ नवदीक्षित भिक्षु के प्रति दीक्षादाता के कर्तव्य
१. “शस्त्रपरिज्ञा" का अध्ययन कराना अथवा "छज्जीवनिका" का अध्ययन कराना। .
२. उसका अर्थ--परमार्थ समझाना कि ये पृथ्वी आदि जीव हैं, धूप छाया पुद्गल आदि अजीव हैं तथा पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष नव पदार्थ, कर्मबंध के हेतु व उनके भेद, परिणाम इत्यादि का परिज्ञान कराना।
३. इन्हीं तत्त्वों को पुनः पुनः समझाकर उसे धारण कराना, श्रद्धा कराना । , ४. तत्पश्चात् उन जीवों की यतना का विवेक सिखाना ।
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