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[निशीथसूत्र भिक्षु को ऐसे समाधि भंग करने वाले स्थान पर ठहरना ही नहीं चाहिये । कारणवश ठहरना पड़े तो निस्पृह भाव से रहे ।
ग्यारहवें उद्देशक में सेवा भावना से या मोह भाव से गृहस्थ के कार्य करने का गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त कहा गया है। पशु आदि को खोलना-बांधना भी गहस्थ के ही कार्य हैं । फिर भी किसी विशेष परिस्थिति में भिक्ष करुणाभाव से कोई गहस्थ के कार्य कर ले तो उसे प्रस्तुत सूत्र से लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है और गृहस्थ के प्रति अनुराग या मोह से बांधना-खोलना आदि कोई भी सांसारिक कृत्य करे तो उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।
- यद्यपि पशु आदि के खोलने-बांधने आदि के कार्य संयम समाचारी से विहित नहीं हैं तथापि यहां करुणा भाव से खोलने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त न कह कर लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त कहा है।
अनुकम्पा भाव रखना यह सम्यक्त्व का मुख्य लक्षण है, फिर भी भिक्षु ऐसे अनेक गृहस्थ, जीवन के कार्यों में न उलझ जाये इसलिये उसके संयम जीवन की अनेक मर्यादाएं हैं। भिक्षु के पास आहार या पानी आवश्यकता से अधिक हो तो उसे परठने की स्थिति होने पर भी किसी भूखे या प्यासे व्यक्ति को मांगने पर या बिना मांगे देना नहीं कल्पता है । क्योंकि इस प्रकार देने की प्रवृत्ति से या प्रस्तुत सूत्र कथित प्रवृत्ति करने से क्रमशः भिक्षु अनेक कृत्यों में उलझ कर संयम साधना के मुख्य लक्ष्य से दूर हो सकता है । उत्तरा. अ. ९ गा. ४० में नमिराजर्षि शक्रेन्द्र को दान की प्रेरणा के उत्तर में कहते हैं
"तस्सावि संजमो सेओ, अदितस्स वि किंचणं ॥" अर्थात्-कुछ भी दान न करते हुए गृहस्थ के महान् दान से भी संयम श्रेष्ठ है ।
अनुकम्पा भाव की सामान्य परिस्थिति के प्रायश्चित्त में एवं विशेष परिस्थिति के प्रायश्चित्त में भी अन्तर होता है जो प्रायश्चित्तदाता गीतार्थ के निर्णय पर ही निर्भर रहता है।
यदि कोई पशु या मनुष्य मृत्यु संकट में पड़े हों और उन्हें कोई बचाने वाला न हो, ऐसी स्थिति में यदि कोई भिक्षु उन्हें बचा ले तो उसे छेद या तप प्रायश्चित्त नहीं आता है। केवल गुरु के पास उसे आलोचना करना आवश्यक होता है।
___ यदि उस अनुकम्पा की प्रवृत्ति में बांधना, खोलना आदि गृहकार्य, आहार-पानी देना आदि मर्यादाभंग के कार्य या जीवविराधना का कोई कार्य हो जाये तो लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
___ तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी ने संयमसाधना काल में तेजोलेश्या से भस्मभूत होने वाले गोशालक को अपनी शीतलेश्या से बचाया और केवलज्ञान के बाद इस प्रकार कहा कि "मैंने गोशालक की अनुकम्पा के लिये शीतलेश्या छोड़ी, जिससे वेश्यायन बालतपस्वी की तेजोलेश्या प्रतिहत हो गई। -भग. श. १५
अतः प्रस्तुत सूत्र में करुणा भाव या अनुकम्पा भाव का प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु उसके साथ की गई गृहस्थ की प्रवृत्ति या संयममर्यादा भंग की प्रवृत्ति का प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिये।
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