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विवेचन-- सचित्त वृक्ष तीन प्रकार के होते हैं
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१. संख्यात जीव वाले ताड़ वृक्षादि, २. असंख्यात जीव वाले आम्रवृक्षादि ३. अनंत जीव वाले थूरादि ।
संख्यात जीव वाले या प्रसंख्यात जीव वाले वृक्ष पर चढ़ने का लघुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है और अनंत जीव वाले वृक्ष पर चढ़ने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है ।
पांचवें उद्देशक में सचित्त वृक्ष के निकट खड़े रहने का भी प्रायश्चित्त कहा गया है ।
अतिवृष्टि से बाढ़ आने पर, श्वापद या चोर के को वृक्ष पर चढ़ना पड़े तो सूत्रोक्त प्रायश्चित्त श्राता है, प्रसंग आए तो प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है ।
वृक्ष पर चढ़ने से होने वाले दोष
१. वनस्पतिकाय की विराधना होती है ।
२. चढ़ते समय हाथ-पाँव आदि में खरोंच आ जाती है ।
३. गिर पड़ने से अन्य जीवों की विराधना होती है ।
४. हाथ-पाँव प्रादि में चोट आने से आत्मविराधना होती है ।
[ निशीथसूत्र
भय या अन्य किसी परिस्थिति से भिक्षु किन्तु अकारण चढ़े या बारम्बार चढ़ने का
५. वृक्ष पर चढ़ते हुए देखकर किसी के मन में अनेक आशंकायें उत्पन्न हो सकती हैं । ६. धर्म की अवहेलना होना भी संभव है ।
गृहस्थ के पात्र में प्रहार करने का प्रायश्चित्त-
अनंतकायिक थूहर ग्राक आदि वृक्षों पर चढ़ना संभव नहीं होता है, अतः उनका सहारा लेना आदि का प्रायश्चित्त समझ लेना चाहिए ।
१०. जे भिक्खू गिहि-मत्ते भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ ।
१०. जो भिक्षु गृहस्थ के पात्र में आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन - भिक्षु गृहस्थ के द्वारा अपने पात्र में श्राहारादि ग्रहण कर उसे खा सकता है किन्तु गृहस्थ के थाली - कटोरी आदि में नहीं खा सकता है तथा उनके गिलास लोटे प्रादि से पानी नहीं पी सकता है । यह मुनिजीवन का प्रचार है ।
दशवै. प्र. ६ गा. ५१-५२-५३ में इसका निषेध किया गया है, वह वर्णन इस प्रकार है"कांस्य मिट्टी आदि किसी भी प्रकार के गृहस्थ के बर्तन में प्रशन-पान आदि प्रहार करता भिक्षु अपने प्रचार से भ्रष्ट हो जाता है ।
भिक्षु के खाने या पीने के बाद गृहस्थ के द्वारा उन बर्तनों को विराधना होती है और उस पानी के फेंकने पर अनेक त्रस प्राणियों की भी जिनेश्वर देव ने असंयम कहा है ।
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धोये जाने पर प्रकाय की हिंसा होती है, अतः इसमें
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