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बारहवां उद्देशक ]
[२५९ सूक्ष्म दृष्टि से तो काया के प्रत्येक हलन चलन मात्र में वायुकाय की विराधना होती है । यह विराधना तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में योगनिरोध होने के पूर्व तक होती रहती है । संयम मर्यादा में व इस प्रायश्चित्त प्रकरण में उसका कोई संबंध नहीं है ।
किसी पदार्थ को ठंडा करने के लिए या शारीरिक गर्मी को शांत करने के लिए हवा करनाकराना भिक्षु को नहीं कल्पता है और आवश्यक प्रवृत्तियां 'प्रयतना से' करने पर पापकर्म का बंध होता है अर्थात् वह सावद्य प्रवृत्ति कही जाती है ।
- दश. प्र. ४
अतना का अर्थ - किसी भी कार्य के करने में हाथ, पाँव, शरीर या उपकरण आदि को शीघ्र गति से चलाना, किसी पदार्थ को नीचे रखने परठने में ऊपर से फेंकना तथा छींक खांसी आदि आवश्यक शारीरिक प्रक्रियाओं में हाथ आदि का उपयोग न करना इत्यादि को प्रयतना समझना चाहिए ।
वनस्पतिकाय की विराधना के स्थान -
१. मार्ग में – विहार में, ग्रामादि में या ग्रामादि के बाहर कार्यवश जाने आने में हरी घास, नये अंकुर, फूल, पत्ते, बीज आदि पर तथा फूलन (काई) युक्त भूमि पर चलने से या इनका स्पर्श हो जाने पर वनस्पतिकाय की विराधना हो जाती है ।
कहीं वृक्ष की छाया में बैठने पर असावधानी से उसके स्कंध आदि का स्पर्श हो जाय, वहाँ पर पड़े हुए फूल, पत्ते, बीज आदि का स्पर्श हो जाय तो वनस्पतिकाय की विराधना हो जाती है ।
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२. गोचरी में ―हरी तरकारियां, फल, फूल, बीज, फूलन आदि के अनंतर या परंपर स्पर्श करते हुए खाद्य पदार्थ, अग्नि आदि से अपरिपक्व मिश्र या सचित्त हरी तरकारियां आदि श्रर्द्धपक्व सट्टे, होले आदि ग्रहण करने से अथवा भिक्षा देने के निमित्त दाता द्वारा इन वनस्पतियों का स्पर्श करने से वनस्पतिकाय की विराधना होती है ।
१. बीज धान्य, २. हरी वनस्पतियां और ३. फूलन युक्त श्राहार प्रनाभोग से खाने में आ जाय तो वनस्पतिकाय की विराधना होती है । जिसका प्रायश्चित्त कथन क्रमशः उद्देशक चौथे, बारहवें तथा दसवें में किया गया है ।
वनस्पति के टुकड़े, छिलके, पत्ते तथा तत्काल की पीसी हुई चटनी आदि कोई भी पदार्थ यदि दाता के हाथ या कुडछी आदि के लगे हुए हों तो उनसे प्रहार ग्रहण करने पर वनस्पतिकाय की विराधना होती है ।
३. परिष्ठापन में - मल-मूत्र, कफ, श्लेष्म, आहार- पानी, उपधि आदि को हरी घास पर अंकुर एवं फूलन युक्त भूमि पर तथा बीज फूल पत्ते आदि पर परठने से वनस्पतिकाय की विराधना होती है । रात्रि में परठने के लिये उस भूमि की संध्या के समय ध्यान पूर्वक प्रतिलेखना करके वनस्पति आदि से रहित भूमि में परिष्ठापन करना चाहिए। ऐसा न करने पर वनस्पतिकाय की विराधना होती है ।
प्रायश्चित्त — गोचरी में गृहस्थ द्वारा पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय तथा प्रत्येक वनस्पतिकाय की विराधना हो जाय तो लघुमासिक प्रायश्चित्त, अनंतकाय की विराधना हो जाय तो
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