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बारहवां उद्देशक
[२५१ सरोम-चर्म-परिभोग-प्रायश्चित्त
५-जे भिक्खू सलोमाइं चम्माइं अहिट्ठइ, अहिद्वैत वा साइज्जइ ।
५-जो भिक्षु रोम [केश] युक्त चर्म का उपयोग करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । [ उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। ]
विवेचन-सामान्यतया [ उत्सर्गमार्ग में ] साधु को चर्म रखना नहीं कल्पता है, किसी कारण से आवश्यकता पर्यन्त रखा जाना एवं उपयोग में लेना विहित है। वृद्धावस्था में शरीर की मज्जा क्षीण होने पर कमर आदि अवयवों की अस्थियों से त्वचा का घर्षण होता है अथवा कुष्ठ, अर्श आदि रोग हो जाये तो चर्म का उपयोग किया जा सकता है।
चर्म साधु की औधिक उपधि नहीं है, अतः बृहत्कल्पसूत्र, उद्देशक ३ में कहे गये इस विषय के सभी सूत्र अपवादिक स्थिति की अपेक्षा से ही कहे गये हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
उन सूत्रों का अभिप्राय यह है कि विशेष परिस्थिति में उपयोग में आने योग्य कटा हुमा रोमरहित चर्मखण्ड साधु-साध्वी ले सकते हैं और आवश्यकता के अनुसार रख सकते हैं। किसी विशेष परिस्थिति में साधु सरोमचर्म भी सूत्रोक्त विधि के अनुसार उपयोग में ले सकता है, किन्तु अधिक समय तक नहीं रख सकता है । साध्वी के लिये सरोमचर्म सर्वथा निषिद्ध है ।
सरोमचर्म-प्रयोग करने में निम्न दोष हैं, यथा१. रोमों में अनेक सूक्ष्म प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं । २. प्रतिलेखना अच्छी तरह नहीं हो पाती है। ३. वर्षा में कुथुए या फूलन हो जाती है । ४. धूप में रखने से उन जीवों की विराधना होती है ।
किसी परिस्थिति में सरोम-चर्म लाना पड़े तो जो कुभकार, लोहार आदि के दिन भर बैठने के काम आ रहा हो और रात्रि में उनके यहाँ अनावश्यक हो तो वह लाना चाहिए और रात्रि में रख कर वापिस दे देना चाहिए, क्योंकि कुभकार, लुहार आदि के दिन भर अग्नि के पास काम करने के कारण उसमें एक रात्रि तक जीवोत्पति संभव नहीं रहती। अतः एक रात्रि से अधिक रखने का निषेध किया है।
चूर्णिकार ने बताया है कि साधु के लिए यह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त समझना चाहिए, किन्तु साध्वी सरोम चर्म का उपयोग करे तो गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।
साध्वी के लिये पूर्ण निषेध का कारण बताते हुए व्याख्याकार कहते हैं कि सरोम चर्म में पुरुष जैसे स्पर्श का अनुभव होता है, अतः साध्वी के लिये वह सर्वथा वर्ण्य है ।
किन्तु रोम रहित चर्म विशेष कारण होने पर साधु-साध्वी ले सकते हैं और नियत समय तक रख सकते हैं । उसके रखने का सूत्र में प्रायश्चित्त नहीं कहा गया है।
भाष्यकार ने इस सूत्र के विवेचन में रोम रहित चर्म रखने पर साधु को गुरुचौमासी और साध्वी को लघुचौमासी प्रायश्चित्त आने का कहा है, वह अकारण रखने की अपेक्षा से कहा गया है । क्योंकि कोई भी औपग्रहिक उपधि अकारण रखना प्रायश्चित्त योग्य है।
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