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[ निशीथसूत्र
११. कई संघातिम जीवों के कलेवर अक्षरों पर चिपक जाते हैं अथवा उनका खून अक्षरों पर लग जाता है ।
जीववध के चार दृष्टान्त - १. चतुरंगिणी सेना के बीच से हिरण, संपातिम जीव, ३. तेल की घाणी आदि में से तिल या त्रस जीव तथा मत्स्य इत्यादि अनेक जीव कदाचित् छूट भी सकते हैं, बच भी सकते हैं, किन्तु जाने वाला प्राणी नहीं बच सकता । इसलिये भाष्य में कहा है
२. तृण-पंचक
जत्तिय मेत्ता वारा, मुंचति, बंधति य जत्तिया वारा । जत्ति अक्खराणि लिहति व, तत्ति लहुगा च आवज्जे ॥
इन पुस्तकों को जितनी बार खोले, बंद करे या जितने अक्षर लिखे उतनी बार लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्ताता है और जो प्राणी मर जाय उसका प्रायश्चित्त भी अलग आता है ।
२. घी-दूध आदि में से ४. जाल में फंसा हुआ पुस्तक के बीच में श्रा
--भा. गा. ४००८
१. कुथुए आदि छोटे जीवों की विराधना होती है ।
२. जहरीले जीव-जन्तु से आत्मविराधना होती है ।
३. अतः जितनी बार करवट बदले अथवा आकुंचन-प्रसारण करे, उतने लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आते हैं ।
शेष तीनों पंचक में प्रतिलेखन शुद्ध न होने से या जीवविराधना होने से संयम विराधना होती है । ग्रतः भुषिर दोष के कारण ये उपकरण ग्रहण करने योग्य नहीं हैं । किन्तु श्रापवादिक स्थिति में यदि ये उपकरण ग्रहण किये जाएं तो उसका प्रायश्चित्त लेना चाहिये और इन्हें अकल्पनीय उपकरण या श्रपग्रहिक उपकरण समझना चाहिये ।
बृहत्कल्पसूत्र उद्देशक - ३ में साधु के लिये सरोम चर्म का मर्यादा युक्त विधान है तथा तृणपंचक भी ग्रहण करने का उत्तराध्ययन प्र. २३ आदि अनेक श्रागमों में वर्णन है । इन वर्णनों से यह फलित होता है कि कभी परिस्थितिवश ये भुषिर उपकरण भी जीवविराधना न हो, उस विधि से एवं मर्यादा से रखे जा सकते हैं । किन्तु जब जीवों की विराधना सम्भव हो या आवश्यकता न रहे तब उन्हें छोड़ देना चाहिये ।
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शारीरिक परिस्थिति से ग्रावश्यक होने पर चर्म पंचक और तृण-पंचक या वस्त्र - पंचक ग्रहण करके उपयोग में लिये जा सकते हैं, उसी प्रकार श्रुतविस्मृति आदि कारणों से, अध्ययन में सहयोगी होने से पुस्तक आदि साधन भी उक्त विवेक के साथ रखे जा सकते हैं ।
अपने पास रखी जाने वाली प्रौधिक और प्रोपग्रहिक उपधि का उभय काल प्रतिलेखन, प्रमार्जन करना भिक्षु का प्रावश्यक ग्राचार है। तदनुसार यदि पुस्तकों को अपनी उपधि रूप में रखना हो तो उनका भी उभय काल यथाविधि प्रतिलेखन, प्रमार्जन करना चाहिये। ऐसा करने पर भाष्योक्त दोषों की सम्भावना भी नहीं रहती है और ज्ञान - प्राराधना में भी सुविधा रहती है ।
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