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[निशीथसूत्र
"सोवच्चले सिंधवे लोणं, रोमालोणे य आमए।
सामुद्दे पंसुखारे य, काला लोणे य आमए ॥" आचा. श्रु. २, अ. १, उ. १० में इन दो प्रकार के नमक को खाने का विधान है। ___ दशवै अ. ६, गा. १८ में इन दो के संग्रह का निषेध है और प्रस्तुत सूत्र में रात्रि में रखे हुए को खाने का प्रायश्चित्त है । इन स्थलों के वर्णन से यही स्पष्ट होता है कि उपरोक्त छः प्रकार के सचित्त नमक में से कोई नमक अग्नि-पक्व हो तो उसे 'बिडलवण' कहते हैं और अन्य शस्त्रपरिणत हो तो उसे 'उद्भिन्न नमक' कहते हैं ।
__ भाष्यकार यहाँ आहार एवं अनाहार योग्य पदार्थों का वर्णन करते हुए बताते हैं कि ये सूत्रोक्त पदार्थ भूख-प्यास को शांत करने वाले न होते हुए भी आहार में मिलाये जाते हैं और आहार को संस्कारित करते हैं, अतः ये भी आहार के उपकारक होने से आहार ही हैं ।
औषधियाँ आहार व अनाहार में दो प्रकार की कही हैं१. जिन्हें खाने पर कुछ भी अनुकूल स्वाद आए वे आहार रूप हैं ।
२. जो खाने में अनिच्छनीय एवं अरुचिकर हों वे अनाहार हैं, यथा-त्रिफला आदि औषधियां, मूत्र, निम्बादि की छाल, निम्बोली तथा और भी ऐसे अनेक पत्र, पुष्प, फल, बीज आदि समझ लेने चाहिए ।
अथवा भूख में जो कुछ भी खाया जा सकता है वह सब आहार है ।
यह व्याख्या एक विशेष अपेक्षा से ही समझनी चाहिए । क्योंकि व्यव. उ. ९ के अनुसार रात्रि में स्वमूत्र पीना भी निषिद्ध है, जिसे भाष्य में अनाहार कहा गया है। अतः इन त्रिफला आदि पदार्थों को भी रात्रि में रखना, खाना या उपवास आदि में अनाहार समझकर खाना आगम सम्मत नहीं समझना चाहिए।
विवेचन के अन्त में भाष्यकार ने भी आहार व अनाहार रूप पदार्थों को सामान्यतया रात्रि में रखने और खाने का निषेध किया है । आहार के रखने पर गुरुचौमासी और अनाहार के रखने पर लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है। बालमरणप्रशंसा-प्रायश्चित्त
९१-जे भिक्खू १. गिरिपडणाणि वा, २. मरु-पडणाणि वा, ३. भिगुपडणाणि वा, ४. तरुपडणाणि वा, ५. गिरिपक्खंदणाणि वा, ६. मरुपक्खंदणाणि वा, ७. भिगुपक्खंदणाणि वा, ८. तरुपक्खंदणाणि वा, ९. जलपवेसाणि वा, १०. जलणपवेसाणि वा, ११. जलपक्खंदणाणि वा, १२. जलण-पक्खंदणाणि वा, १३. विसभक्खणाणि वा, १४. सत्थोपाडणाणि वा, १५. वलयमरणाणि वा, १६. वसट्ट-मरणाणि वा, १७. तब्भव-मरणाणि वा, १८. अंतोसल्ल-मरणाणि वा, १९. वेहाणसमरणाणि वा, २०. गिद्धपुट-मरणाणि वा अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि बालमरणाणि पसंसइ, पसंसंतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ।
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