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[निशीथसूत्र १. 'मैंने ऐसा विस्मयकारक प्रयोग किया', इस हर्ष से उन्मत्त हो सकता है। २. अन्य को विस्मित करने से वह विक्षिप्तचित्त हो सकता है।
३. उस विद्या आदि की कोई याचना कर सकता है । उसे देने पर सावद्य प्रवृत्ति होती है और नहीं देने पर वह विरोधी बनता है ।
४. विद्या आदि के प्रयोग में प्रवृत्त होने से तप-संयम की हानि होती है । ५. असद्भूत प्रयोगों से विस्मित करने में माया-मृषावाद का सेवन होता है ।
अतः सद्भूत या असद्भूत दोनों प्रकार की विस्मयकारक प्रवृत्तियाँ करने पर प्रायश्चित्त आता है। विपर्यासकरण-प्रायश्चित्त
६७-जे भिक्खू अप्पाणं विप्परियासेइ, विप्परियासंतं वा साइज्जइ। ६८-जे भिक्खू परं विप्परियासेइ, विप्परियासंतं वा साइज्जइ । ६७--जो भिक्षु स्वयं को विपरीत बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है ।
६८-जो भिक्षु दूसरे को विपरीत बनाता है या विपरीत बनाने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-स्वयं की जो भी अवस्था है, यथा-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, जवान, सरोग, नीरोग, सुरूप, कुरूप आदि, उनसे विपरीत अवस्था करना-यह स्वविपर्यासकरण है। इसी तरह अन्य की भी जो अवस्था हो उससे विपरीत बनाना यह परविपर्यासकरण है। ऐसा करने से गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
सूत्र ६३ से ६८ तक इन छहों सूत्रों में कुतूहलवृत्ति और मायाचरण दोष के कारण प्रायश्चित्त का कथन है।
सूत्र ६७-६८ में भाष्यकार ने विपर्यास करने की जगह विपर्यास कथन का अधिक विवेचन किया है। अन्यमतप्रशंसाकरण-प्रायश्चित्त
६९-जे भिक्खू मुहवण्णं करेइ, करेंत वा साइज्जइ।
जो भिक्षु अन्य धर्म की प्रशंसा करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन- जो जिस धर्म का भक्त हो उसके सामने उसके धर्म आदि की प्रशंसा करना मुखवर्ण है । वे प्रशंसा के स्थान ये हैं, यथा---
१. गंगा आदि कुतीर्थों की।
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