________________
ग्यारहवां उद्देशक ]
२. शाक्य मत प्रादि कुसिद्धांतों की । ३. मल्लगणधर्म प्रादि कुधर्मों की । ४. गोव्रत आदि कुव्रतों की । ५. भूमिदान आदि कुदानों की ।
६. ३६३ पाखंड रूप उन्मार्गों की ।
इनकी प्रशंसा करने से मिथ्यात्व व मिथ्या प्रवृत्ति की पुष्टि होती है । जिनप्रवचन की प्रभावना में कमी होती है । साधु की अपकीति होती है कि ये खुशामदी हैं, इसीलिये हर किसी के समक्ष उसके मत की प्रशंसा करते हैं ।
[२२७
अतः कुतीर्थिकों के सामने उनके मत की प्रशंसा करे, अन्य धर्म के मुख्य तत्वों की या मुख्य प्रवर्तक की प्रशंसा करे तो उस भिक्षु को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।
सूत्र में ' मुखवर्ण' शब्द है, जिसका अर्थ है - जो सामने हो उसकी प्रशंसा करना । जिस किसी के सामने उसकी प्रशंसा करना खुशामद करना कहा जाता है और असत् गुणकथन से माया व असत्य वचन का दोष भी लगता है । जिससे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त का कारण बनता है । इसके पूर्व के सूत्रों में भी असत् भयभीतकरण, विस्मितकरण और विपर्यासकरण के प्रायश्चित्त का कथन है । अतः प्रस्तुत सूत्र में भी कोई व्यक्ति सामने है, उसकी अतिशयोक्तियुक्त प्रसत् प्रशंसा ( झूठी प्रशंसा ) करने का यह प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना अधिक संगत प्रतीत होता है ।
भाष्य में "भावमुख" की अपेक्षा अन्य धर्म एवं उनके मुख्य तत्त्वों की प्रशंसा उसी धर्म के अनुयायी के सामने करने की अपेक्षा से विवेचन किया गया है, जिसका सारांश ऊपर दिया गया है । विरुद्ध राज्य गमनागमन-प्रायश्चित्त
७०. जे भिक्खू वेरज्ज - विरुद्ध रज्जंसि सज्जं गमणं, सज्जं आगमणं, सज्जं गमनागमणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ।
७०. दो राजाओं का परस्पर विरोध हो और परस्पर राज्यों में गमनागमन निषिद्ध हो, वहाँ जो भिक्षु बारंबार गमन, श्रागमन या गमनागमन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है ।)
विवेचन - एक विरोधी राज्य से दूसरे विरोधी राज्य में जाना “गमन" । जाकर पुनः लौटना " आगमन" है तथा बार-बार जाना-आना " गमनागमन" है । अथवा - प्रज्ञापक की अपेक्षा " गमन", अन्य स्थान की अपेक्षा "आगमन" है ।
दो राजाओं में परस्पर विरोध चल रहा हो, एक राज्य से दूसरे राज्य की सीमा में जाने पर प्रतिबंध हो तो वहां भिक्षु को नहीं जाना चाहिये। वहां जाना आवश्यक ही हो तो एक बार जाना या श्राना करे तो सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है । किन्तु बारंबार जाने या आने में अनेक दोषों की संभावना होने से उसका प्रायश्चित्तविधान है ।
बृहत्कल्पसूत्र उद्देशक एक में इस सम्बन्ध में निषेध किया गया है तथा ऐसा करने वाला भगवदाज्ञा तथा राजाज्ञा दोनों का उल्लंघन करने वाला होता है, ऐसा कहा गया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org