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दसवां उद्ददेशक ]
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इन पाठों से यह स्पष्ट है कि वर्षावास, हेमंत और ग्रीष्मकाल चार-चार मास के होते हैं । वस्त्रग्रहण सम्बन्धी विधि - निषेध व प्रायश्चित्त संबंधी सूत्रों में भी बारह महीनों का विभाग इस प्रकार किया है
नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पढम-समोसरणुद्देसपत्ताइं चेलाई पडिग्गाहेत्ताए । कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा दोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिग्गाहेत्तए ।
- बृहत्कल्प ० उ० ३, सू० १६-१७ जे भिक्खू पढमसमोसरणुद्दे से पत्ताई चीवराई पडिगाहेइ, पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ । - निशीथ० उ० १०, सु० ४७
वितियं समोसरणं उडुबद्धं, तं पडुच्च वासावासोग्गहो पढमसमोसरणं भण्णति । -- निशीथ चूणि उ० १०, पृ० १५८
इन सूत्रों में भी ४ महीनों के वर्षावास को प्रथम समवसरण कहा है और आठ महीनों के ऋतुबद्ध काल को दूसरा समवसरण कहा है। इस प्रकार बारह महीनों को दो समवसरणों में विभक्त किया है ।
अह पुण एवं जाणिज्जा - चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता |
प्राचा० श्र० २, ०३, उ० १
इस पाठ में भी चातुर्मास के चार महीने ही कहे हैं । अतः वर्षावास (चातुर्मास ) चार मास का होता है, उपर्युक्त सूत्र पाठों से यह स्पष्ट निर्णय हो जाता है ।
" चातुर्मास रहने" के लिये क्रिया प्रयोग इस प्रकार है
सेवं गच्चा णो गामाणुगामं दुइज्जेज्जा तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिएज्जा । तहप्पगारं गामं वा जाव रायहाणि वा णो वासावासं उवल्लिएज्जा । तहप्पगारं गामं वा जाव रायहाणि वा तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिएज्जा ।
- आचा० श्रु० २, अ० ३, उ० १
इन सूत्रों में चार मास तक रहने के लिए 'उवल्लिएज्जा' क्रिया का प्रयोग किया गया है । पज्जोसवणा और पज्जोसवेद क्रिया का प्रयोग
जे भिक्खु अपज्जोसवणाए पज्जोसवेइ, पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ ण पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ।
जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तरियंपि आहारं आहारेइ, आहारतं वा साइज्जइ ।
इन सूत्रों में संवत्सरी के लिए पज्जोसवणा और संवत्सरी करने के लिए 'पज्जोसवेइ' क्रिया
का प्रयोग हुआ है ।
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- निशीथ उ० १०, सु० ३६-३८
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