________________
२१०]
[निशीथसूत्र २. किन्तु ग्लान भिक्षु के ग्राम की या स्थान की जानकारी होने पर सेवा न करने की भावना से उन्मार्ग से अन्यत्र न जावे तथा जिस मार्ग से आ रहा हो उसी मार्ग से वापिस न लौटे ।
३. ग्लान के लिए आवश्यक पदार्थ न मिले या पूर्ण मात्रा में न मिले तो उसकी संतुष्टि के लिये नहीं मिलने का दोष अपने ऊपर लेकर खेद प्रकट करना चाहिए।
४. औषध या पथ्य गवेषणा करने पर भी न मिले तो न अन्य काम में लगे और न कहीं बैठे किन्तु पहले ग्लान को यह जानकारी दे कि “इतनी गवेषणा करने पर भी आवश्यक वस्तु नहीं मिली है या कुछ देर बाद मिलने की सम्भावना है।"
आगम में वैयावृत्य को प्राभ्यन्तर तप कहा है । अतः साधु को इसे अपनी आत्मशुद्धि का कार्य समझकर करना चाहिये तथा यह सोचना चाहिये कि यह ग्लान मुझ पर उपकार कर रहा है, मुझे सहज पाभ्यन्तर तप का अवसर दे रहा है । इस तरह उपकार मानकर सेवा करने से अत्यधिक निर्जरा होती है । उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९ में सेवा से तीर्थंकर पद का सर्वोत्तम लाभ होना कहा है । सूत्रकृतांग सूत्र श्रु. १ अ. ३ उद्दे. ३ तथा ४ में ग्लान भिक्षु की अग्लान भाव से सेवा करने का निर्देश किया गया है। वर्षाकाल में विहार करने पर प्रायश्चित्त
३४. जे भिक्खू पढम-पाउसम्मि गामाणुगामं दूइज्जइ, दुइज्जंतं वा साइज्जइ । ३५. जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियंसि गामाणुगामं दूइज्जइ, दुइज्जंतं वा साइज्जइ ।
३४. जो भिक्षु प्रथम प्रावृट् ऋतु में ग्रामानुग्राम विहार करता है या विहार करने वाले का अनुमोदन करता है।
३५. जो भिक्षु वर्षावास में पर्युषण करने के बाद ग्रामनुग्राम विहार करता है या विहार करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचनः-भिक्षु हेमन्त और ग्रीष्म के आठ महीनों में विचरण करे और वर्षाकाल के चार मास में विचरण नहीं करे । यथा
नो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा वासावासासु चारए। कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु चारए ।
-बृहत्कल्प० उ० १, सू० ३६-३७ इन दो सूत्रों में बारह महीनों का वर्णन किया गया है, जिसमें वर्षावास-चातुर्मास का काल चार मास का गिना गया है। तीर्थंकर भगवान् महावीर के जन्म आदि के महीनों का कथन इस प्रकार है
गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धे वासावासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मिगसरबहुले। -आचा० श्रु० २, अ० १५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org