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[ २१५
दसवां उद्देशक ]
वर्धमान परिणाम रखना इत्यादि विशिष्ट धर्म- जागरणा करने के लिये यह पर्युषण का दिन है । इन कर्तव्यों का पालन करने पर ही आत्मा के लिये इसी दिन का महत्त्व है । आागम में इसी दिन के लिये "पर्युषण" शब्द प्रयोग किया गया है । श्वेताम्बर परम्परा के पूर्व साधना के सात दिन युक्त आठवें दिन को पर्युषण कहा जाता है और इस दिन को "संवत्सरी" कहा जाता है । किन्तु वास्तव में संवत्सरी का दिन ही ग्रागमोक्त पर्युषण दिन है । शेष दिन पर्युषण की भूमिका रूप हैं । दिगम्बर परम्परा में पर्युषण के दिन से बाद में १० दिन तक धर्म-आराधना करने की परिपाटी है । कालान्तर से दसवें दिन (अनन्त चतुर्दशी को ) संवत्सरी पर्व का आराधन किया जाने लगा है ।
पर्युषणाकल्प गृहस्थ को सुनाने का प्रायश्चित्त
४०. जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा पज्जोसवेइ, पज्जोसवेंतं वा साइज्जइ ।
४०. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को पर्युषणाकल्प ( साधु-समाचारी) सुनाता है या सुनाने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है । )
विवेचन -- "अन्यतीर्थिक और गृहस्थ" से आठ प्रकार के गृहस्थ समझना चाहिये जिनका स्पष्टीकरण पहले उद्देशक के सूत्र १५ में कर दिया गया है ।
दशाश्रुतस्कन्ध के ग्राठवें अध्ययन का नाम " पज्जोसवणाकप्प" है । उसमें वर्षावास की साधु-समाचारी का कथन है ।
पर्युषण के दिन सायंकालीन प्रतिक्रमण करके सभी साधु " पज्जोसवणाकप्प' अध्ययन का सामूहिक उच्चारण करें या श्रवण करें तथा उसमें वर्णित साधु-समाचारी का वर्षामास में व अन्य काल में पालन करे ।
चूर्ण में कहा है- 'पज्जोसवणाकप्पकहणे इमा सामायारी' - ' अप्पणो उवस्सए पादोसिए आवस्सए कए कालं घेत्तु (काल प्रतिलेखन कर ) काले सुद्धे पट्ठवेत्ता कहिज्जति । ..... । सव्वे साहू समप्पायणियं काउस्सग्गं करेंति.... ''
स्वाध्याय- काल का प्रतिलेखन कर इस अध्ययन का श्रवण कर फिर समाप्ति का कायोत्सर्ग करना इत्यादि विधि चूर्णि में बताई गई है ।
प्रस्तुत सूत्र में "पर्युषणाकल्प - अध्ययन" गृहस्थों को सुनाने का या गृहस्थ-युक्त साधु-परिषद् में सुनाने का प्रायश्चित्त कहा गया है । अतः रात्रि के समय साधु-परिषद् में ही कहने और सुनने का विधान है |
"पज्जोसवणाकप्प" अध्ययन की यह परम्परा अज्ञात काल से विच्छिन्न हो गई है ।
दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति आदि व्याख्यानों की रचना के समय तक यह अध्ययन अपने स्थान पर ही पूर्ण रूप से था । उसके बाद सम्भव है तेरहवीं - चौदहवीं शताब्दी में इसे संक्षिप्त करके वर्तमान प्रख्यात कल्पसूत्र से जोड़ा गया है तथा किसी प्रति के लेखक ने इस अध्ययन के स्थान पर पूरे कल्पसूत्र को ही लिख दिया है । इससे इस अध्ययन का सही स्वरूप ही नहीं रहा । तीर्थंकरों के वर्णन व स्थविरावली के साथ - साथ मौलिक समाचारी में भी अनेक पाठ प्रक्षिप्त किये गये हैं, जो नियुक्ति व उसकी चूर्णि के अध्ययन से स्पष्ट जाने जा सकते हैं ।
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