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[निशीथसूत्र विसमे समयविसेसे, करणग्गह-चार-वार-रिक्खाणं । पवतिहीण य सम्मं, पसाहगं विगलियं सुत्तं ॥१॥ तो पव्वाइविरोहं गाउं, सव्वेहि गीयसूरीहिं।।
आगममूलमिणंपि अ, तो लोइय टिप्पणयं पगयं ॥२॥ अर्थ--समय की विषमता के करण, ग्रहों की गति, वार, नक्षत्र और पर्व तिथियों की सम्यक् सिद्धि करने वाला श्रुत नष्ट हो चुका है, अतः पर्व-तिथि आदि के निर्णय मे ।वरोध आता जानकर सभी गीतार्थ प्राचार्यों ने यह “लौकिक पंचांग भी आगमानुसार ही है" ऐसा मानकर इसी से पर्व-तिथि आदि करना स्वीकार किया है।
अतः सम्पूर्ण जैन समाज को लौकिक पंचांग-निर्दिष्ट पक्ष एवं चातुर्मास के अन्तिम दिन अर्थात् अमावस, पूनम को पक्खी, चौमासी पर्व तथा ऋषिपंचमी को संवत्सरी महापर्व मनाने का निर्णय स्वीकार करना चाहिये । ऐसा करने में सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है तथा अनेक गीतार्थ पूर्वाचार्यों के सम्यक् निर्णय का पालन भी होता है। पयुषण के दिन बाल रहने देने का और पाहार करने का प्रायश्चित्त__३८. जे भिक्खू पज्जोसवणाए गोलोमाई पि बालाई उवाइणावेइ, उवाइणावेतं वा साइज्जइ ।
३९. जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तरियं पि आहारं आहारेइ आहारतं वा साइज्जइ।
३८. जो भिक्षु पर्युषण (संवत्सरी) के दिन गाय के रोम जितने बालों को रखता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है।
३९. जो भिक्षु पर्युषण (संवत्सरी) के दिन थोड़ा भी पाहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन–पर्युषण सम्बन्धी भिक्षु के कर्तव्य -
१. वर्षावास योग्य क्षेत्र न मिलने पर यदि चातुर्मास की स्थापना न को हो तो इस दिन चातुर्मास निश्चित कर देना चाहिये ।
२. ऋतुबद्ध काल के लिए ग्रहण किये गए शय्या, संस्तारक की चातुर्मास-समाप्ति तक रखने की पुनः याचना न की हो तो इस दिन अवश्य कर लेनी चाहिये । .. ३. शिर या दाढी-मूछ के गो-रोम जितने बाल भी हो गए हों तो उनका लोच अवश्य कर लेना चाहिये । क्योंकि गो-रोम जितने बालों को पकड़कर लोच किया जा सकता है।
४ संवत्सरी के दिन चारों आहारों का पूर्ण त्याग करना चाहिये अर्थात् चौविहार उपवास करना चाहिये।
। इन कर्तव्यों का पालन न करने पर भिक्षु प्रायश्चित्त का पात्र होता है। इनका पालन करना हो पर्युषण को पर्युषित करना कहा जाता है ।
इसके अतिरिक्त वर्ष भर की संयम पाराधना-विराधना का चिन्तन कर हानि-लाभ का अवलोकन करना, आलोचना, प्रतिक्रमण व क्षमापना आदि कर आत्मा को शान्त व स्वस्थ करके
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