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[निशीघसूत्र ठाणांगसूत्र अ. ५ उ. २ सु. २ में चातुर्मास में विहार करने के कारणों का कथन दो विभाग करके कहा गया है-प्रथम विभाग को 'पढम पाउसम्मि' कहा है और द्वितीय विभाग को 'वासावासं पज्जोसवियंसि' कहा है।
दोनों विभागों में विहार करने के भिन्न-भिन्न ५-५ कारण कहे हैं । ये दोनों विभाग चातुर्मास के ही हैं । क्योंकि शेष आठ महीनों में विहार करने को कल्पनीय कहा गया है। अपवाद तो अकल्पनीय में होता है।
ठाणांगसूत्र के इन सूत्रों के समान प्रस्तुत सूत्र ३४-३५ में भी चातुर्मास के दो विभागों का कथन करते हुए प्रायश्चित्त कहा गया है।
'पज्जोसवेइ' क्रिया का प्रयोग संवत्सरी करने के लिए ऊपर बताया है, अतः ये दो विभाग चातुर्मास के इस प्रकार समझना आगमसम्मत है । प्रथम विभाग संवत्सरी के पूर्व और दूसरा विभाग संवत्सरी (पर्युषणा) के बाद ।
विहार करने का प्रायश्चित्त-विधान और कारणों से विहार करने का कथन चातुर्मास (वर्षावास) के चार महीनों की अपेक्षा सही है। जिसके लिए प्रस्तुत दोनों सूत्र ३४-३५ में तथा ठाणांगसूत्र में 'पढमपाउसम्मि' तथा 'वासवासं पज्जोसवियंसि' शब्द हैं, जिनका 'पाउस-वर्षाकाल के प्रथम विभाग में' और 'वर्षावास में पर्युषणा (संवत्सरी) करने के बाद में', ऐसा अर्थ करना ही प्रसंग-संगत है।
प्रवृत्ति की अपेक्षा से भी यही अर्थ उचित होता है। भगवान् महावीर स्वामी के चातुर्मास रहने का और चार मासखमण का पारणा होने का वर्णन भी भगवतीसूत्र में है। उसके बाद के आज तक के २५०० वर्षों के इतिहास में भी प्रायः चार मास का वर्षावास ही करते आए हैं।
अतः 'वासावास' के साथ आने वाली पज्जोसवियंसि क्रिया निशीथ व ठाणांग में पर्युषण का ही कथन करने वाली है, ऐसा मानने पर ही अर्थ की पूर्वापर संगति होती है।
भाष्यकार और चूर्णिकार ने छः ऋतु में पहली प्रावट ऋतु कही है। इसमें विहार करने के प्रायश्चित्त का विधान है तथा 'दूइज्जइ' का अर्थ करते हुए कहा है कि दो (शीत और ग्रीष्म) काल में भिक्षु चलता है, इसलिए दूइज्जइ क्रिया है ।
___ संवत्सर के हेमन्त, ग्रीष्म और वर्षाकाल रूप तीन विभाग और प्रावृट्ऋतु आदि छह विभाग निश्चित हैं। प्राकृतिक परिवर्तन होने पर या एक मास की वृद्धि-हानि हो जाने पर भी इन विभागों की कालगणना में जो महीने कहे गये हैं, उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता है ।। पर्युषणकाल में पर्युषण न करने का प्रायश्चित्त
३६. जे भिक्खू पज्जोसवणाए ण पज्जोसवेइ ण पज्जोसर्वतं वा साइज्जइ। ३७. जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवेइ पज्जोसर्वतं वा साइज्जइ ।
३६. जो भिक्षु पर्युषण (संवत्सरी) के दिन पर्युषण नहीं करता है या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है।
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