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[निशीथसूत्र कालिक दशाश्रुतस्कन्धसूत्र का 'पज्जोसवणाकप्प' अध्ययन गृहस्थों को सुनाने का निषेध है, फिर भी उसे उत्कालिक (चुल्ल) कल्पसूत्र आदि किसी से जोड़ा गया है और नया कल्पसूत्र संकलन कर दोपहर (उत्काल) में तथा गृहस्थों के सामने वांचन किया जाने लगा है।
यह अध्ययन वर्तमान में विकृत अवस्था में है। इसकी मौलिकता के साथ ही इससे सम्बन्धित शुद्ध परम्परा भी व्यवच्छिन्न हो गई । जिससे इस प्रायश्चित्तसूत्र ४० की अर्थपरम्परा व प्रायश्चित्तपरम्परा भी विच्छिन्नप्रायः हो चुकी है। वर्षाकाल में वस्त्र ग्रहण करने का प्रायश्चित्त
४१. जे भिक्खू पढमसमोसरणुद्देसे-पत्ताई चीवराई पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहार-ठाणं अणुग्धाइयं ।
४१. जो भिक्षु चातुर्मासकाल प्रारम्भ हो जाने पर भी वस्त्र ग्रहण करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है।
इन ४१ सूत्रोक्त स्थानों का सेवन करने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन-'प्रथम समवसरण' व 'द्वितीय समवसरण' ये शब्द क्रमशः चातुर्मास काल तथा ऋतुबद्ध काल के लिए आगम में प्रयुक्त हुए हैं । साधु के ग्रामादि में आगमन को समवसृत होना कहा जाता है । वह आगमन दो प्रकार का है-ऋतुबद्धकाल के लिए आगमन और चातुर्मासकाल के लिए आगमन । इस प्रागमन काल को ही 'समवसरण' कहा जाता है। उसके दो विभाग हैं अतः प्रथम व द्वितीय समवसरण कहा जाना व्युत्पत्तियुक्त है।
बृहत्कल्पसूत्र उद्देशक ३, सूत्र १६ में चातुर्मास में वस्त्रग्रहण करने का निषेध है और इस सूत्र में उसका प्रायश्चित्त कहा गया है।
सूत्र में 'पत्ताइ' शब्द है उसकी व्याख्या मे दोनों व्याख्याकारों ने 'प्राप्तानि' छाया करके 'पत्त' 'अपत्त' क्षेत्र एवं काल के भंग बनाये हैं।
'पत्ताइ' शब्द का पात्र' अर्थ भी होता है किन्तु सूत्ररचना के अनुसार 'प्राप्तानि' अर्थ संगत होता है। क्योंकि दो का कथन करना हो तो आगमकार 'वा' का प्रयोग करते हैं, यथा---'वत्थं वा पडिग्गहं वा' ।
अतः इस सूत्र में केवल वस्त्र का ही कथन है, फिर भी व्याख्याकार ने सभी उपकरणों का चातुर्मास में ग्रहण करने का निषेध किया है और चातुर्मास से पूर्व आवश्यक और अतिरिक्त कौन-कौन सी उपधि व कितनी संख्या में ग्रहण करनी चाहिए, यह भी स्पष्ट किया है। उद्देशक का सारांशसूत्र-१-४ आचार्य या रत्नाधिक श्रमण को कठोर, रूक्ष या उभय वचन कहे तथा किसी भी प्रकार
की आशातना करे।
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