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आठवां उद्देशक]
[१७९ २. मुद्धाभिसित्त--अनेक राजारों के मस्तक जिसे झुकते हैं अर्थात् अनेक राजाओं द्वारा अभिषिक्त अथवा माता-पिता के द्वारा अभिषिक्त ।
३. रणो खत्तियाणं-ऐसा क्षत्रिय राजा । अनेक राजाओं द्वारा या माता-पिता आदि के द्वारा अभिषिक्त शुद्धवंशीय क्षत्रिय राजा । ये तीनों विशेषण केवल स्वरूपदर्शक व महत्त्व बताने के लिये कहे गये हैं । अतः बहुत बड़े राजा की अपेक्षा हो इन शब्दों का प्रयोग है, ऐसा समझना चाहिये ।
तात्पर्य यह है कि मूर्द्धाभिषिक्त बड़े राजा का आहार आदि २४वें तीर्थंकर के शासन में साधु-साध्वियों को ग्रहण करना नहीं कल्पता है । अतः इससे जागीरदार, ठाकुर आदि का निषेध नहीं समझना चाहिये।
१. समवाएसु-समवायो--गोष्ठीनां मेलापकः, वणिजादिनां संघातः । राजेन्द्र कोश । समवायो मेलकः-संखच्छेद श्रेण्यादेः । -प्राचा. श्रु. २, अ. १, उ. २ । समवायो गोट्ठी भत्तं । चूर्णि।
२. पिंडनियरेसु-पितृपिंडं मृतकभक्तमित्यर्थः । --आचा. १ पिंडनिगरो दाइभत्तं, पितिपिंडपदाणं---(पितृपिंडप्रदान) वा पिंडनिगरो । --चूणि ।
३. रुद्र-भागिणेयो रुद्रः । रुद्रः शिवः । आचारांग में इसका अर्थ ईश्वर किया है। राजेन्द्र कोश में “महादेव-महेश्वर" कहकर उसकी उत्पत्ति का विस्तृत कथानक किया है। ४. मुकुंद-मुकुदो बलदेवः । -चूणि । वासुदेव महोत्सवः ।-भग श. ९, उ. ३३ ५. चेइय-चेइयं-देवकुलं । ६. सर-खुदाई किये बिना स्वतः निष्पन्न जलाशय-तालाब । ७. तडाग-खुदाई करके तैयार किया गया तालाब ।
अनेक प्रकार के महोत्सव अनेक निमित्तों से भिन्न-भिन्न काल में प्रारम्भ कर दिये जाते हैं तथा लम्बे काल तक उस निश्चित तिथि में चलते रहते हैं।
राजा की तरफ से इन महोत्सवों में बनाया गया आहार ग्रहण करने पर भिक्षु को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है । ऐसे स्थलों में जाने पर अनेक दोषों की संभावना रहती है तथा राजा का प्रसन्न होना या नाराज होना दोनों ही स्थितियां अनेक दोषों का निमित्त हो सकती हैं। अतः ऐसे स्थलों में भिक्षा के लिये नहीं जाना चाहिये ।
सूत्र १५-१६. में कार्यवश कहीं अन्यत्र गये हुए राजा के विभिन्न स्थानों का निर्देश किया गया है। उन स्थानों पर राजा के लिये जो आहार बनता है, उसके ग्रहण करने का प्रायश्चित्त कहा गया है । व्याख्याकार ने कहा है कि ये उदाहरण रूप में कहे गये हैं, अन्य भी इस तरह के स्थानों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिये।
१. उत्तरशाला-'जत्थ य कोडापुव्वं गच्छति, तत्थ णं वसति ते उत्तरशाला गिहा वत्तव्वा' 'अत्थानिगादिमंडवो उत्तरसाला, मूलगिहं असंबद्धं उत्तरगिहं ।'
सूत्र १८ में दान दिये जाने वाले आहार का कथन है।
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