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दसवां उद्देशक]
[१९९ विवेचन-"आहाकम्मं ग्रहणादात्मनि कर्म आहितं, आत्मा वा कर्मणि आहितः।" (इति आहाकम्म)
२. "आहाकम्मग्गहणातो जम्हा विसुद्धसंजमठाणेहितो अप्पाणं अविसुद्धठाणेसु अहो अहो करेति तम्हा भाव आहोकम्मं ।"
३. "भाव-आते णाण-दंसण-चरणा तं हणंतो भावाताहम्मं ।" ४. "आहाकम्मपरिणतो परकम्मं अत्तकम्मीकरेति त्ति अत्तकम्मं ।" व्याख्याकार ने प्राधाकर्म के चार पर्याय करके अर्थ किये हैं
१. प्राधाकर्म आहार आदि ग्रहण करने से आत्मा पर कर्मों का आवरण आता है । अथवा आत्मा कर्मों से आवृत होती है ।
२. आधाकर्म आहारादि ग्रहण करने से आत्मा विशुद्ध संयमस्थानों से गिरकर अविशुद्ध संयमस्थानों में आ जाती है । अथवा आत्मा का पुनः पुनः अधःपतन होता रहता है।
३. प्राधाकर्म आहारादि ग्रहण करने से आत्मा के भाव-गुण, ज्ञान, दर्शन, चारित्र का हनन होता है।
४. प्राधाकर्म अाहारादि ग्रहण करने के परिणामों से प्रात्मा गृहस्थ के कार्यों से अपने कर्मों का बंध करती है। आधाकर्म के प्रकार--
"आहाकम्मे तिविहे, आहारे उवधि वसहिमादीसु । आहाराहाकम्म, चउन्विधं होइ असणादी ॥२६६३।। उवहि-आहाकम्मं, वत्थे पाए य होइ णायव्वं । वत्थे पंचविधं पुणं, तिविहं पुण होइ पायम्मि ॥२६६४॥ वसही-आहाकम्म, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य ।
एक्केक्कं सत्तविहं, गायव्वं आणुपुव्वीए ॥२६६५॥ १. आहार-प्राधाकर्म-चार प्रकार का है-१. अशन, २. पान, ३. खाद्य, ४. स्वाद्य । २. उपधि-प्राधाकर्म-दो प्रकार का है-वस्त्र और पात्र ।
वस्त्र पाँच प्रकार के हैं और पात्र तीन प्रकार के हैं। उपलक्षण से अन्य भी औधिक और औपग्रहिक उपधि समझ लेनी चाहिये।
___ ३. वसति-प्राधाकर्म-शय्या के मूल विभाग व उत्तर विभाग की अपेक्षा सात-सात प्रकार होते हैं। आधाकर्म की कल्प्याकल्प्यता
प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन में एक या अनेक साधु के उद्देश्य से बना हुआ प्राधाकर्म आहार किसी भी साधु या साध्वी को नहीं कल्पता है।
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