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नवम उद्देशक]
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पुर में प्रवेश करना या निकलना नहीं कल्पता है, अतः यह पात्र मुझे दो। मैं अंत:पुर से अशन, पान, खाद्य वा स्वाद्य यहां लाकर दू," जो उसके इस प्रकार कहने पर उसे स्वीकार करता है या स्वीकार करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-राजा का अंतःपुर तीन प्रकार का होता है१. जुण्णतेपुरं-अपरिभोग्या-वृद्धा रानियों का अन्तःपुर । २. नवंतेपुरं--परिभोग्या युवा रानियों का अन्तःपुर । ३. कण्णतेपुरं-अप्राप्त यौवना-कन्या राजकुमारियों का अन्तःपुर ।
रायंतेपुरिया-चूर्णिकार ने इसका अर्थ "राजा की रानी" किया है। यह अर्थ प्रसंगसंगत नहीं है, इसलिए यहां नहीं लिया है।
दूसरा अर्थ है-'दासी'
तीसरा अर्थ है-अंतःपुर का रक्षक, जो प्रायः द्वार के पास खड़ा रहता है। यह अर्थ प्रसंग संगत है।
अतः 'अंतेपुरिया' का अर्थ है अंतःपुर में रहने वाला या अंतःपुर की रक्षा करने वाला।
इस अर्थभेद के कारण सूत्र नं. ५ के पाठ में भी कुछ विकल्प उत्पन्न हुए हैं, उनका यथार्थ निर्णय नहीं हो पाया है।
जहां स्त्री द्वारपालिका रहती है वहां स्त्रीलिंगवाची "जो तं एवं वदंती पडिसुणेई" जहां पुरुष द्वारपाल हो वहां पुलिंगवाची "जो तं एवं वदंतं पडिसुणेइ" इस प्रकार दोनों पाठ शुद्ध हो सकते हैं ।
द्वारपाल से मंगवाकर राजपिंड ग्रहण करने में एषणादोषयुक्त, विषयुक्त, अभिमंत्रित आहार या अधिक आहार ग्रहण किया जा सकता है । अन्य भी अनेक दोषों के लगने की संभावना रहती है । राजा का दानपिंड-ग्रहण प्रायश्चित्त
६. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं, १. दुवारिय-भत्तं वा, २. पसु-भत्तं वा, ३. भयग-भत्तं वा, ४. बल-भत्तं वा, ५. कयग-भत्तं वा, ६. हय-भत्तं वा, ७. गय-भत्तं वा, ८. कंतारभत्तं वा, ९. दुभिक्ख-भत्तं वा, १०. दुकाल-भत्तं वा, ११. दमग-भत्तं वा, १२. गिलाण-भत्तं वा, १३. बद्दलिया-भत्तं वा, १४. पाहुण-भत्तं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ ।
६. जो भिक्षु शुद्धवंशज मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा के१. द्वारपालों के निमित्त बना भोजन, २. पशुओं के निमित्त बना भोजन, ३. नौकरों के निमित्त बना भोजन, ४. सैनिकों के निमित्त बना भोजन, ५. दासों के निमित्त या कर्मचारियों के निमित्त बना भोजन, ६. घोडों के निमित्त बना भोजन, ७. हाथी के निमित्त बना भोजन,
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