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दूसरा उद्देशक] अग्रपिंड ग्रहण प्रायश्चित्त
३२. जे भिक्खू नितियं अग्गपिडं भुजइ भुजंतं वा साइज्जइ । ___३२. जो भिक्षु नित्य-अग्र-पिंड-प्रधानपिंड अर्थात् निमन्त्रण देकर नित्य दिया जाने वाला आहार भोगता है या भोगने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-दशवैकालिक अ. ३ में 'नियागपिंड' नामक जो अनाचार कहा गया है उसी का प्रायश्चित्त इस सूत्र में कहा है। नियागपिंड के पर्यायवाची शब्द १. नितिय अग्गपिंड
२. निइय अग्गपिंड, ३. निइयग्ग पिंड,
४. नियाग्गपिंड, ५. नियागपिंड।
नियागपिंड को व्याख्या के अनुसार १. निमन्त्रणपिंड, २. निकायणापिंड ३. नित्याग्रपिंड, ४. नित्य अग्रपिंड, ये सब नियागपिंड के समानार्थक हैं । इन सबका अर्थ है-'नित्य नियमित निमन्त्रण पूर्वक दिया जाने वाला आहार ।'
"आप प्रतिदिन मेरे घर पर भिक्षा लेने के लिए नियमित पधारें।" जो गृहस्थ साधु-साध्वियों को इस प्रकार निमंत्रण देता है उसके यहाँ से आहार लेने पर उन्हें लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। भले ही वह आहार उसके निजी उपयोग के लिए ही बना हो । यह भाष्य और चूर्णिकार का अभिप्राय,है।
जिस गृहस्थ के यहाँ प्रतिदिन नियमित रूप से श्रेष्ठ सरस आहार का दान दिया जाता है वह गृहस्थ निमन्त्रण दे या न दे उसके यहाँ से आहार लेने पर भी सूत्रोक्त लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
अग्रपिण्ड का भी चूर्णिकार नित्य निमन्त्रितपिण्ड अर्थ करते हैं तथा उसके अनेक विकल्प एवं उससे होने वाले दोषों को समझाकर कहते हैं कि "तस्मानिमंत्रणादि पिंडो वर्त्यः कारणे पुण निकायणा पिडं गेण्हेज्ज" । गोतत्यो पणग परिहाणिए जाहे मासलहुं पत्ते ताहे णीयग्गपिंडं गेण्हंति ॥
___व्याख्याकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि गवेषणा के सभी दोष टालकर निमंत्रण व नियमितता के अभाव में दो चार दिन लगातार भी एक घर से आहार लेना दोष नहीं है । अर्थात् वह नियागपिंड नाम का अनाचार नहीं है। दानपिंड प्रायश्चित्त
३३. जे भिक्खू नितियं पिंडं भुजइ भुजंतं वा साइज्जइ । ३४. जे भिक्खू नितियं-अवड्ढभागं भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ । ३५. जे भिक्खू नितियं भागं भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ । ३६. जे भिक्खू नितियं उवड्ढभागं भुजइ, भुजंतं वा साइज्जइ।
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