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चतुर्थ उद्देशक ]
राजा श्रादि को आकर्षित करने का प्रायश्चित्त
११. जे भिक्खू “रायं" अत्थीकरेइ, अत्थीकरेंतं वा साइज्जइ । १२. जे भिक्खू " रायारक्खियं" अत्थीकरेइ, अत्थीकरेंतं वा साइज्जइ । १३. जे भिक्खू " नगरारक्खियं" अत्थीकरेइ, अत्थीकरेंतं वा साइज्जइ । १४. जे भिक्खू “निगमार क्खियं" अत्थीकरेइ, अत्थीकरेंतं वा साइज्जइ । १५. जे भिक्खू " सव्वारक्खियं" अत्थीकरेइ, अत्थीकरेंतं वा साइज्जइ । ११. जो भिक्षु राजा को अपना अर्थी बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है । १२. जो भिक्षु राजा के अंगरक्षक को अपना अर्थी बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन
करता है ।
१३. जो भिक्षु नगररक्षक को अपना अर्थी बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है ।
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१४. जो भिक्षु निगमरक्षक को अपना अर्थी बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है ।
१५. जो भिक्षु सर्वरक्षक को अपना अर्थी बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन - प्रत्थीकरेइ के तीन अर्थ किये गये हैं
१. साधु राजा की प्रार्थना करे,
२. साधु ऐसे कार्य करे जिससे राजा साधु की प्रार्थना करे,
३. राजा का कोई कार्य सिद्ध कर दे । ये अर्थीकरण के प्रकार हैं । अथवा राजा को कहे कि " मेरे पास ऐसी विद्याएं हैं, निमित्तज्ञान है या विशिष्ट अवधि आदि ज्ञान हैं । ये सब राजा को अर्थी (आकर्षित करने के उपाय हैं ।
र्थीकरण भी प्रतीकरण का ही एक प्रकार है । अतः अच्चीकरण के सूत्रों के समान अर्थीकरण के सूत्र भी प्रत्तीकरण के ही पूरक हैं, ऐसा समझना चाहिए ।
अर्थीकरण के तीन अर्थों में से प्रथम अर्थ की अपेक्षा पीछे के दोनों अर्थ विशेष संगत प्रतीत होते हैं । पहला अर्थ है राजा की प्रार्थना करना, उसका भावार्थ तो "अच्चीकरेइ" के सूत्रों में समाविष्ट हैं तथा अपने तपोबल से प्राप्त लब्धि द्वारा राजा को वश में करना अर्थात् अपनी तरफ प्राकृष्ट करना यह अर्थ प्रसंग संगत होता है । अतः "प्रत्थीकरेइ" का अर्थ हुआ कि इनको अपनी ओर आकृष्ट
करना ।
इस प्रकार इन सभी (१५) सूत्रों का संक्षिप्त सार यह है कि राजा आदि को अपना बनाने की कोई प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए । शेष शब्दों की व्युत्पत्ति इस प्रकार है
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