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पाँचवां उद्देशक ]
६. अणिसिद्ध - - " अणिसिट्ठ नाम तित्थकरेहिं अदिण्ण" अहवा बितिओ आएसो - जं गुरु जणं अणणुण्णायं तं अणिसिट्ठ ।"
गाथा
पंचातिरिक्तं दव्वे उ, अचित्तं दुल्लभं च दोसं तु ।
भावम्मि वन्नमोल्ला, अणणुण्णायं व जं गुरुणा ।। २१८२ ॥
ऊन का, ऊँट के केशों का, सन का, वच्चकधास का और मूंज का ये पांच प्रकार का जोहरण रखने की तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा है । बृह. उ. २, तथा ठाणांग अ. ५ । इनसे भिन्न प्रकार का रजोहरण रखना "अणिसिद्ध" कहा गया है । भाष्य में भी द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के भेद से यह कहा गया है कि पाँच प्रकार के रजोहरण से भिन्न प्रकार का अथवा दुर्लभ और बहुमूल्य तथा गुरु की प्रज्ञा के बिना ग्रहण किया गया रजोहरण " अणिसिट्ठ" होता है ।
७. 'वोट' - आउग्गह खेत्ताओ, परेण जं तं तु होति वोस आरेणं अवोसट्ट, वोसट्ठे
।
धरेंत आणादी || २१८५ ।।
७. श्रात्मप्रमाण अर्थात् शरीरप्रमाण क्षेत्र से दूर रखा गया रजोहरण 'वोसट्ठ' कहा जाता है और आत्मप्रमाण अवग्रह के अन्दर हो तो 'अवोसट्ठ' कहा जाता है । 'वोसट्ठ' रखने पर आज्ञा का उल्लंघन होता है तथा प्रायश्चित्त आता है ।
भावार्थ यह है कि रजोहरण को सदा अपने साथ व पास में ही रखना चाहिए । शरीर प्रमाण - एक धनुष जितना दूर रहने पर प्रायश्चित्त नहीं आता है । उससे ज्यादा दूर होने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है |
प्रचलित प्रवृत्ति में कोई ५ हाथ की मर्यादा करते हैं । कोई पूरे मकान की मर्यादा भी कहते हैं । किन्तु आत्मप्रमाण कहना अधिक उचित है, आवश्यकता होने पर सरलता से उसका शीघ्र उपयोग हो सकता है ।
'मुहपोत्तिय णिसेज्जाए एसेव गमो वोसट्टा वोसटु सु पुव्वावरपदेसु ।। २१८८ ॥
इस प्रकार भाष्यकार ने मुखवस्त्रिका और निषद्या ( प्रासन) के लिए भी उपलक्षण से 'अवोस' 'वोस' का विवेक रखना सूचित किया है ।
८.
अहिgs - अधिष्ठित होने में खड़ा होना, बैठना तथा उस पर सोना आदि का समावेश हो सकता है । 'उस्सीस- मूले' -- शिर के नीचे देने का अलग सूत्र होने से उसके सिवाय सभी सम्भावित क्रियाओं का ग्रधिष्ठित होने में समावेश समझ लेना चाहिए । पांवों का या शरीर का प्रमार्जन करने में तो रजोहरण का उपयोग किया जाता है किन्तु आसन या शय्या के रूप में उसका उपयोग नहीं करना चाहिये । शिर के नीचे देना सिरहाना करना कहलाता है और शेष अंग से सोना, बैठना आदि अधिष्ठित होना कहलाता है । अर्थात् शरीर के किसी भी अवयव के नीचे रजोहरण को दबाना नहीं कल्पत है।
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९. उस्सीसमूले- इस सूत्र की चूर्णि के बाद उद्देशक का मूल पाठ समाप्त हो जाता है । अतः उपलब्ध ग्यारहवां "तुयट्टेइ" का सूत्र बाद में बढ़ाया गया प्रतीत होता है । भाष्यकार ने भी
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