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[निशीथसूत्र
आपवादिक स्थिति में साधु-साध्वी एक दूसरे की अनेक प्रकार से सेवा कर सकते हैं और परस्पर आलोचना प्रायश्चित्त भी कर सकते हैं। किन्तु उत्सर्ग रूप से वे परस्पर सेवा एवं आलोचनादि भी नहीं कर सकते–व्यवहार सूत्र उद्देशा-५ ।।
अतः साधु-साध्वी परस्पर सेवा आदि का सम्पर्क प्रापवादिक स्थिति में ही रखें तथा आवश्यक वाचना आदि का आदान-प्रदान करें। इसके अतिरिक्त परस्पर सम्पर्क-वृद्धि नहीं करें । यही जिनाज्ञा है। उपाश्रय में रात्रि स्त्रीनिवास प्रायश्चित्त--
१२. जे भिक्खू णायगं वा, अणायगं वा, उवासगं वा, अणुवासगं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा राई, कसिणं वा राइं संवसावेइ, संवसावेंतं वा साइज्जइ ।
अर्थ- जो भिक्षु स्वजन या परजन की, उपासक या अन्य की स्त्री को उपाश्रय के अन्दर अर्द्ध रात्रि या पूर्ण रात्रि तक रखता है या रखने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है।)
विवेचन-सूत्र में "स्त्री" या "पुरुष" का स्पष्ट कथन नहीं है, प्रसंगवश स्त्री के रखने का ही प्रायश्चित्त समझना चाहिये । भाष्यणि में भी कहा है कि
__ "इमं पुण सुत्तं इत्थि पडुच्च" यह सूत्र स्त्री की अपेक्षा से है। गाथा-इत्थि पडुच्च सुत्तं, सहिरण्ण सभोयणे य आवासे ।
जइ निस्संगय जे वा मेहुण निसिभोयणं कुज्जा ॥२४६९॥ अद्धं वा राइंअद्धं राईए दो जामा, 'वा' विकप्पेण एगं जाम । चउरो जामा कसिणा राई 'वा' विकप्पेण तिण्णी जामा । अद्धं शब्द का अर्थ आधी रात न करके अपूर्ण रात्रि भी किया जा सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३४ में "मुहुत्तद्धं" शब्द है । उसका अर्थ केवल आधा मुहूर्त ही नहीं है अपितु मुहूर्त से कम भी हो सकता है । तदनुसार यहां भी संपूर्ण रात्रि के अतिरिक्त कम ज्यादा रात्रि का भी ग्रहण हो सकता है । अतः इस सूत्र का भावार्थ यह है कि रात्रि में अल्प या अधिक समय स्त्री को उपाश्रय में रखे तो प्रायश्चित्त पाता है।
संवसावेइ-"रखना" दो तरह से हो सकता है १. रहने के लिए कहना २. रहते हुए को मना नहीं करना । अतः रात्रि में उपाश्रय के अन्दर स्त्री को रहने के लिये कहना नहीं और बिना कहे
प्रा जावे और रहना चाहे तो उसे मना कर देना चाहिये । 'मना नहीं करना' भी रहने देना ही होता है । अतः रहने का कहे या मना नहीं करे तो भी "संवसावेइ" कथन से प्रायश्चित्त आता है।
उक्त व्याख्या के कारण कई प्रतियों में मना नहीं करने का स्वतन्त्र सूत्र भी अलग मिलता है। किन्तु उसकी वाक्यरचना अशुद्ध प्रतीत होती है। अतः वह सूत्र प्रक्षिप्त ही प्रतीत होता है। क्योंकि इस स्वीकृत सूत्र से ही विषय की पूर्ति हो जाती है । प्रकाशित चूर्णि के मूल पाठ में वह सूत्र नहीं है ।
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