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छठा उद्देशक ]
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खांड,
७८. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, शक्कर या मिश्री आदि पौष्टिक आहार करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । उपर्युक्त ७८ सूत्रों में कथित दोष-स्थानों का सेवन करने वाले को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त
आता है ।
विवेचन - माउग्गामं 'मातिसमाणो गामो मातुगामो, मरहट्ठविसयभासाए' वा 'इत्थी' माउग्गामो भण्णति" माता के समान है शरीरावयव जिसके उसे अर्थात् स्त्री को मातृग्राम कहते हैं। तथा महाराष्ट्र देश की भाषा में भी स्त्री को "माउग्गाम" कहा जाता है । अतः ये दोनों पर्यायवाची शब्द समझना चाहिये ।
विष्णवेs - 'विष्णवण-- विज्ञापना- इह तु प्रार्थना परिगृह्यते ।'
मोहनीय कर्म का प्रबल उदय होने पर जो भिक्षु प्रागमवाक्यों के चिंतन से उसे निष्फल नहीं करता है और स्त्री से प्रार्थना करता है अर्थात् मैथुन सेवन के लिए कहता है तो भाव से ब्रह्मचर्य भंग होने के कारण अथवा मैथुन सेवन करने पर चतुर्थ व्रत के भंग होने से उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है ।
ग्रागमकार ब्रह्मचर्यव्रत की दुष्करता का वर्णन इस प्रकार करते हैं
विरई अबभचेरस्स, कामभोग रसण्णुणा । उग्गं महव्वयं बंभं, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥ दुक्खं बंभवयं घोरं, धारेउं अमहप्पणो ।
- उत्त. प्र. १९, गा. २८
- उत्त. प्र. १९. गा. ३३
कामभोगों के रस के अनुभवी के लिए अब्रह्मचर्य से विरत होना और उग्र एवं घोर ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण - पालन करना अत्यन्त कठिन है ।
जो आत्मा महान् नहीं है किन्तु क्षुद्र है, उसके लिए घोर दुष्कर ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना अतीव कष्टकर है ।
आगमकार ब्रह्मचर्य व्रत के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं
मूलमेयं अहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहुण संसगं, णिग्गंथा वज्जयंति णं ॥
- दसवै अ, ६, गा, १७
मेथुन धर्म का मूल है और महान् दोषों का समूह है अतः निग्रंथ मैथुन संसर्ग का वर्जन
करते हैं ।
'संसार - मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्याण कामभोग मोक्ष के विरोधी हैं अर्थात् संसार बढ़ाने आगमकार अनेक सूत्रों में यथाप्रसंग ब्रह्मचर्यं महाव्रत
१. दशवै. प्र. ८, गा. ५३-६० ३. दशवै. अ. २, गा. २-९
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कामभोगा ।
वाले हैं प्रतएव ये
की सुरक्षा के लिये सावधान करते हैं
- उत्तरा १४ गा,
प्रनर्थों की खान हैं ।
२.
४. उत्त. प्र. ९, गा. ५३
उत्त. अ. ८, गा. ४-६, १८-१९
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