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सातवां उद्देशक ]
विकारवर्धक श्राकार बनाने का प्रायश्चित्त
९२. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरेणं इंदिएणं आकारं करेइ करेंतं वा
साइज्जइ ।
तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ।
९२. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी इन्द्रिय से अर्थात् प्रांख, हाथ आदि किसी भी अंगोपांग से किसी भी प्रकार के आकार को बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है ।
इन ९२ सूत्रों में कहे गये दोषस्थानों का सेवन करने को गुरुचीमासी प्रायश्चित्त आता है । विवेचन - आकारों का वर्णन भाष्य में इस प्रकार है- आँख से इशारा करना, रोमांचित होना, शरीर को कंपित करना, पसीना आना, दृष्टि या मुख ( चेहरा ) रागयुक्त करना, निश्वास छोड़ते हुए बोलना, बार-बार बातें करना, बार-बार उबासी लेना इत्यादि ।
सातवें उद्देशक का सारांश
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१-१२ मैथुनसेवन के संकल्प से अनेक प्रकार की मालाएँ, अनेक प्रकार के कड़े, अनेक प्रकार के आभूषण व अनेक जाति के चर्म व वस्त्र बनाना, रखना या पहनना ।
१३ मैथुनसेवन के संकल्प से स्त्री के अंगोपांग का संचालन करना । १४-६७ मैथुन के संकल्प से शरीरपरिकर्म के ५४ बोल परस्पर करना ।
६८-७९ स्त्री को पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय व त्रसकाय की विराधना के स्थानों पर बिठाना या सुलाना, गोद में या धर्मशाला आदि स्थानों में बिठाना, सुलाना या आहार करना ।
८०-८२ मैथुनसेवन के संकल्प से चिकित्सा करना, शरीर आदि की शुद्धि करना, शरीर आदि को सजाना ।
८३-८५ पशु-पक्षी के अंगोपांग का संचालन करना, उनके स्रोतस्थानों में काष्ठादि प्रविष्ट करना तथा उनका संचालन करना, उनकी स्त्री जाति का आलिंगन करना ।
८६-९१ स्त्री को आहार व वस्त्रादि देना - लेना तथा उनसे सूत्रार्थ लेना या उनको सूत्रार्थ देना ।
९२ अपने शरीर के किसी अवयव से कामचेष्टा करना ।
इत्यादि प्रवृत्तियों का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त प्राता है ।
उपसंहार -- चतुर्थ महाव्रत व उसकी सुरक्षा के लिए आगमों में अनेक विधान हैं, फिर भी इस उद्देशक के ९२ सूत्रों में जो प्रायश्चित्त कहे गये हैं, ऐसे स्पष्ट निषेध ग्रन्य आगमों में नहीं हैं । यह इस उद्देशक की विशेषता है ।
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