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सातवां उद्देशक]
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की अशुद्धि को दूर करना तथा मनोज्ञ पुद्गल के प्रक्षेप करने का तात्पर्य है शरीर, उपधि या मकान को सुसज्जित करना।
शरीर को पुष्ट करने के लिये छ? उद्देशक के अंतिम सूत्र में पौष्टिक आहार सेवन करने का प्रायश्चित्त कथन हुआ है । अतः यह कथन शरीर की बाह्य त्वचा आदि की अपेक्षा से समझना चाहिये।
चिकित्सा संबंधी कथन सूत्र ८० में किया गया है। उसके अनंतर ही इन दो सूत्रों में बाह्य शुद्धि अथवा सुसज्जित करने का प्रायश्चित्त कहा गया है। व्याख्याकार ने इसका संबंध शरीर के अतिरिक्त उपधि और मकान के साथ भी किया है । जो शुद्धि और शोभा से ही संबंधित होता है।
पशु-पक्षियों के अंगसंचालन आदि का प्रायश्चित्त
८३. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसुजायं वा, पक्खिजायं वा, पायंसि वा, पक्खंसि वा, पुच्छंसि वा, सीसंसि वा गहाय संचालेइ संचालतं वा साइज्जइ।
८४. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरं पसुजायं वा, पक्खिजायं वा, सोयंसि कट्ठ वा, किलिचं वा अंगुलियं वा, सलागं वा अणुप्पवेसित्ता संचालेइ, संचालतं वा साइज्जइ ।
८५. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरं पसुजायं वा, पक्खिजायं वा अयमित्थित्ति कटु आलिंगेज्ज वा, परिस्सएज्ज वा, परिचुम्बेज्ज वा छिदेज्ज वा, विच्छिंदेज्ज वा, आलिंगंतं वा, परिस्सयंतं वा, परिचुबंतं वा, छिदंतं वा, विच्छिंदेंतं वा साइज्जइ।
८३. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी के १. पांव को, २. पार्श्वभाग को, (पंख को) ३. पूछ को या ४. मस्तक को पकड़ कर संचालित करता है या संचालित करने वाले का अनुमोदन करता है।
८४. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी के श्रोत अर्थात् अपानद्वार या योनिद्वार में काष्ठ, खपच्ची, अंगुली या बेंत आदि की शलाका प्रविष्ट करके संचालित करता है या संचालित करने वाले का अनुमोदन करता है।
८५. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के संकल्प से किसी भी जाति के पशु या पक्षी को "यह स्त्री है" ऐसा जानकर उसका आलिंगन (शरीर के एक देश का स्पर्श) करता है, परिष्वजन (पूरे शरीर का स्पर्श) करता है, मुख का चुबन करता है या नख आदि से एक बार या अनेक बार छेदन करता है या आलिंगन आदि करने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है । )
विवेचन-आलिंगन आदि प्रवृत्तियां मोहकर्म के उदय से होती हैं। प्राचारांगसूत्र श्रु. २, अ. ९ में भी इस प्रकार का पाठ है । वहां एकांत में स्वाध्यायस्थल पर गये साधुओं द्वारा परस्पर ऐसी प्रवृत्तियां करने का निषेध किया है।
अनेक प्रतियों में "विछिदेज्ज" शब्द नहीं है, जो लिपि दोष से या भ्रम से नहीं लिखा गया है। किन्तु चर्णिकार के सामने यह शब्द रहा होगा तथा आचारांगसूत्र में तो यह शब्द है ही, यथा
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