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चतुर्थ उद्देशक ]
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स्थान भी यहाँ मार्ग ही समझ लेना चाहिए । अविवेक या कुतूहल से मार्ग में उपकरण रखने पर यह प्रायश्चित्त आता है ।
आचार्यादि के सन्मुख बैठते समय प्राहार दिखाते समय या अन्य कार्य करते समय असावधानी से मार्ग में उपकरण रखना प्रविवेक से रखना कहा जाता है ।
अन्य मीलिन विचारों से रखने पर गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है ।
नया कलह करने का प्रायश्चित्त
३६. जे भिक्खू णवाइं अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ, उप्पाएंतं वा साइज्जइ ।
३६. जो भिक्षु नये-नये झगड़े उत्पन्न करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है ।)
विवेचन – उन प्रकृति से प्रतिवाचालता से या निरर्थक भाषण से कलह होते हैं । हास्य या कुतूहल से भी कलह हो सकता है । अतः साधु को विवेक रखना चाहिए ।
सूयगडांग सूत्र ०२, ०२, गा० १९ में शिक्षा देते हुए कहा गया है कि
"अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं । परिहाई बहु, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए ।"
क्लेश करने से संयम की अत्यधिक हानि होती है, कटुक वचन कहने से आपस में समाधि व शांति की वृद्धि हो जाती है । अतः साधु अधिकरण से व अधिकरण की उत्पत्ति के कारणों से सदा दूर रहे |
उपशांत कलह को उभारने का प्रायश्चित्त -
३७. जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय विओसमियाई पुणो उदीरेइ उदीरेंतं वा
साइज्जइ ।
३७. जो भिक्षु क्षमायाचना से उपशांत पुराने झगड़ों को पुनः उत्पन्न करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । ( उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राता है ।)
विवेचन- १. खामिय – “ खामिय - वायाए” – विधिपूर्वक वचन से क्षमायाचना करना ।
२. विओसमिय- " मणसा विओसमियं व्युत्सृष्टं " - चूर्णी । मन से कलह हटा देना, त्याग देना, उपशांत कर देना ।
जिस व्यक्ति से या जिस प्रसंग के निमित्त से क्लेश उत्पन्न हुआ हो या हो सकता हो उसके लिए पूर्ण विवेक रखना चाहिए । यथासंभव अपनी प्रकृति को शांत रखना चाहिए, अन्यथा उन विषयों से या उन प्रसंगों से अलग रहना चाहिए । विवेक रखते हुए भी क्लेश होने की संभावना रहे तो उस व्यक्ति के सम्पर्क से ही अलग रहना चाहिए। अपने कर्मोदय के प्रभाव को एवं व्यक्तिविशेष' की प्रकृति को या उदयभाव को समझ कर यथावसर विवेक करना चाहिए ।
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