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पांचवां उद्देशक]
[१२९ "अणुण्णा"-"थिरीभूयस्स अणुण्णा"- स्थिर एवं शुद्ध कण्ठस्थ हो जाने पर दूसरे को सिखाने की आज्ञा देना । —नि. चूणि।
उद्देश, समुद्देश और अणुण्णा का अन्य अर्थ भी अनुयोगद्वार सूत्र की हरिभद्रीय टीका में किया है, यथा--
१. उद्देश-सूत्र पढ़ने के लिये आज्ञा देना । २. समुद्देश-स्थिर करने के लिए आज्ञा देना । ३. अणुण्णा-अन्य को पढ़ाने की आज्ञा देना। "वायणा"--सूत्रार्थ की वाचना देना । “पडिच्छणा" सूत्रार्थ की वाचना ग्रहण करना ।
यहाँ वृक्ष-स्कंध के पास ठहरने के निषेध और प्रायश्चित्त के विधान से अन्य सभी कार्यों का निषेध और प्रायश्चित्त स्वतः सिद्ध हो जाता है । फिर भी ग्यारह सूत्रों द्वारा अनेक कार्यों का तथा स्वाध्यायादि करने का निषेध और प्रायश्चित्त विधान विस्तृत शैली की अपेक्षा से कहा गया है । गृहस्थ से चद्दर सिलवाने का प्रायश्चित्त--
१२. जे भिक्खू अप्पणो संघाडि अण्णउत्थिएणं वा, गारथिएण वा सिव्वावेइ, सिव्वावेतं वा साइज्जइ।
१२. जो भिक्षु अपनी चादर को अन्यतीथिक से या गृहस्थ से सिलवाता है या सिलवाने वाले का अनुमोदन करता है।
___ विवेचन-जइ णिक्कारणे अप्पणा सिव्वेति, कारणे वा अण्णउत्थिय-गारथिएहि सिव्वावेति तस्स मासलहुं ।' --१९२१ चूणि ।
स्वतीथिक और परतीथिक चार-चार प्रकार के गृहस्थ होने से कुल आठ प्रकार के गृहस्थ प्रथम डद्देशक सूत्र ग्यारह के विवेचन के अनुसार यहाँ समझ लेना चाहिए ।
आवयकतानुसार लम्बा चौड़ा कपड़ा न मिलने पर या 'अणलं, अथिरं अधारणीय' होने के पूर्व किसी कारण से फट जाने पर सीना आवश्यक हो तो स्वयं सीवे या अन्य साधु से सिलावे और कोई भी साधु सीने वाला न हो तो साध्वी से सिला लेने पर प्रायश्चित्त नहीं आता है, किन्तु गृहस्थ से सिलाने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है । चादर के दीर्घसूत्र करने का प्रायश्चित्त--
१३. जे भिक्खू अप्पणो संघाडीए दोह-सुत्ताइं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ।
१३. जो भिक्षु अपनी चादर के लम्बी डोरियाँ बाँधता है या बाँधने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-चादर या गाती लम्बाई में छोटी हो और बाँधना आवश्यक हो तो चार या उत्कृष्ट छः स्थानों पर डोरियाँ बाँधी जा सकती हैं, जिससे एक, दो या उत्कृष्ट तीन बँधन हो जाते हैं ।
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