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[निशीथसूत्र भाष्यकार ने विधि के वर्णन में कहा है कि "अणुजाणह जस्सुग्गहों" ऐसा बोलकर फिर परठना चाहिये जिससे देव दानव का उपद्रव न हो तथा दिन में उत्तर दिशा की ओर तथा रात्रि में दक्षिण दिशा की ओर मुख करना चाहिये । हवा, बस्ती व सूर्य की तरफ भी पीठ नहीं करना आदि वर्णन किया है।
५. "पुंछई"-मलद्वार को कपड़े से पोंछ लेने के बाद थोड़े पानी से आचमन करने पर भी शुद्धि हो सकती है । जीर्ण कपड़ा भी साधु के पास प्रायः मिल जाता है । काष्ठ आदि से पोंछने का निषेध करने का कारण यह है कि कोमल अंग में किसी प्रकार का आघात न लगे । अंगुली या हाथ से पौंछने पर स्वच्छता नहीं रहती तथा बहुत समय तक हाथ में गंध आती रहती है अतः इनसे पोंछने का प्रायश्चित्त कहा है।
६. 'आचमन'–उच्चारे वोसिरिज्जमाणे अवस्सं पासवणं भवति त्ति तेण गहितं । पासवणं पुण काउं सागारिए (अंगादाणं णायमइ जहा उच्चारे'-मल त्यागने के समय मूत्र अवश्य आता है इसलिये ही सूत्र में मल के साथ मूत्र का कथन है। किन्तु मल त्यागने के बाद मलद्वार का आचमन (प्रक्षालन) किया जाता है, वैसे मूत्रंद्रिय का आचमन करना नहीं समझना चाहिये । मलद्वार को वस्त्रखंड से पोंछ लेने पर भी पूर्ण शुद्धि नहीं होती है तथा उसकी अस्वाध्याय रहती है। अतः आचमन करना भी आवश्यक होता है, आचमन नहीं करने पर सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है ।
__ मल त्यागने के बाद उसके ऊपर ही आचमन करने से गीलापन अधिक बढ़ता है जिससे सूखने में अधिक समय लगने से विराधना की संभावना रहती है । अतः कुछ दूरी पर आचमन करना उचित है । वहीं पर आचमन करने से हाथ के मल लगने की भी संभावना रहती है। अधिक दूर जाकर शुचि करने से लोगों में आचमन न करने की भ्रांति भी हो सकती है।
णावापूराणं-"णाव" त्ति पसतो, ताहिं आयमियव्वं । गाथा-उच्चारमायरित्ता, परेण तिण्हं तु णावपूरेणं।
जे भिक्खू आयमति, सो पावति–आणमादीणि ॥ १८८० ॥ तीन पसली से ज्यादा पानी का उपयोग करने पर निम्न दोषों की प्राप्ति होती है
उच्छोलणा पधोइयस्स, दुल्लभा सोग्गती तारिसगस्स उच्छोलणा दोसा भवंति, पिपीलियादीणं वा पाणाणं उप्पिलावणा भवइ, खिल्लरंधे तसा पडंति, तरुगणपत्ताणि वा, पुप्फाणि वा, फलाणि वा पडंति कुरूकयकरणे बाउस्सत्तं भवति । भाष्य गाथा ॥ १८८१॥
दश. अ. ४ में कहा है-जो बार-बार प्रक्षालन करता है, धोता है ऐसे भिक्षु की सुगति दुर्लभ है, प्रक्षालन से अन्य अनेक दोष लगते हैं । अधिक पानी के रेले से कीडी आदि अनेक प्राणियों को पीडा होती है । किसी खड्डे में पानी भरने पर उसमें त्रस जीव पड़ते हैं तथा वृक्ष के पत्ते, पुष्प, फल आदि पड़ते हैं।
अधिक प्रक्षालन करने से संयम मलीन होता है ।
नावापूरक-नाव जैसी प्राकृति वाली पानी भरी एक हाथ की अंजली (पसली) को नावापूरक कहा गया है, मल-मूत्र त्यागने के बाद ऐसे तीन नावापूरकों से मलद्वार की शुद्धि करनी चाहिए ।
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