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चतुर्थ उद्देशक]
[१२५ सूत्र ३२ प्राचार्यादि की आज्ञा के बिना दुग्धादि विकृतियाँ लेना। सूत्र ३३ स्थापनाकुलों को जाने बिना भिक्षाचर्या के लिए जाना । सूत्र ३४ निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में अविधि से प्रवेश करना । सूत्र ३५
निर्ग्रन्थियों के प्रागमनपथ में दण्डादि रख देना। सूत्र ३६ नये कलह उत्पन्न करना । सूत्र ३७ उपशान्त कलह को पुनः उत्पन्न करना । सूत्र ३८ मुह फाड़-फाड़कर हँसना ।। सूत्र ३९-४८ पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त, नित्यक इन पाँच को अपना संघाडा देना या
उनका संघाडा लेना। सूत्र ४९-६३ अप्काय, पृथ्वीकाय और वनस्पतिकाय आदि सचित्त पदार्थों से लिप्त हाथों द्वारा
आहारादि लेना। सूत्र ६४-११७ साधु-साधु का परस्पर शरीरपरिकर्म करना । सूत्र ११८-११९ संध्या समय तीन उच्चार-प्रस्रवणभूमि का प्रतिलेखन न करना। सूत्र १२० कम लम्बी-चौड़ी भूमि में मल-मूत्र त्यागना । सूत्र १२१ प्रविधि से मल-मूत्र त्यागना । सूत्र १२२ मल-मूत्र त्याग कर मलद्वार न पौंछना । सूत्र १२३ मलद्वार को काष्ठादि से पौंछना । सूत्र १२४ मलद्वार की शुद्धि नहीं करना । सूत्र १२५ मल पर ही शुद्धि करना। सूत्र १२६ अधिक दूरी पर शुद्धि करना । सूत्र १२७ तीन पसली से अधिक पानी से शुद्धि करना । सूत्र १२८ प्रायश्चित्त वहन करने वाले के साथ भिक्षाचर्या जाना ।
इत्यादि प्रवृत्तियों का लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। इस उद्देशक के ५५ सूत्रों के विषयों का कथन निम्न आगमों में है, यथासूत्र ३१ सचित्त बीज आदि का आहार करना अनाचार है । -दशा० अ० ३, गा० ७ सूत्र ३२ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए विकृतियाँ लेना अकल्पनीय है। -दशा० द० ८, सु० ६२ सूत्र ३६-३७ नया कलह उत्पन्न करना या उपशान्त कलह को पुनः उत्तेजना देना असमाधि
स्थान कहा है। -दशा० द०१ सूत्र ४९-६३ सचित्त पानी, मिट्टी, वनस्पति आदि से लिप्त हाथ वालों से आहार लेने का निषेध
—(क) दश. अ. ५, उ. १, गा. ३३-३४
- (ख) आचा. श्रु. २, अ. १, उ. ६, सूत्र ६४ से ८७, ८९ से ९५, ११२ से ११६
साधु-साधु के परस्पर शरीर-परिकर्म का निषेध । -आचा. श्रु २, अ. १४ सूत्र ११८ उच्चार-प्रस्रवणभूमि का प्रतिलेखन करना । -उत्त. अ. २६, गा. ३९ सूत्र १२० विस्तीर्ण उच्चार-प्रस्रवणभूमि में मल-मूत्र त्यागना । -उत्त. अ. २४, गा. १८
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