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[निशीथसूत्र अशुद्ध गवेषणा व आचार का अनुमोदन तथा तन्निमित्तक कर्मबंध का कारण भी होता है। अतः इनको संघाडा अर्थात् एक साधु या अनेक साधु देना या उनसे साधु लेना नहीं कल्पता है ।
तात्पर्य यह है कि बाह्य व्यवहार में जो समान आचार विचार वाले हैं, उनके ही साथ रहने से संयमसाधना शांतिपूर्वक सम्पन्न हो सकती है और व्यवहार भी शुद्ध रहता है । पासत्था आदि का स्वरूप१. पासत्थो-पावस्थ:--- - प्रत्येक पदार्थ के दो पार्श्व भाग होते हैं—एक सुल्टा, दूसरा उल्टा । उद्यत विहार संयमी जीवन का सुल्टा पार्श्वभाग है और शिथिलाचार रूप असंयमी जीवन संयमी जीवन का उल्टा पार्श्वभाग है।
दसण-णाणचरित्ते, तवे य अत्ताहितो पवयणे य ।
तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि ।। ४३४ ।। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और प्रवचन में जिन्होंने अपनी आत्मा को स्थापित किया है ऐसे उद्यत विहारियों का जो पार्श्वविहारी है अर्थात् उनके समान आचार पालन नहीं करता है उसे पार्श्वस्थ जानना चाहिये।
पासोत्ति बंधणं तिय, एगळं बंधहेतवो पासा।
पासत्थिय पासत्था, एसो अण्णोवि पज्जाप्रो ।। ४३४३ ।। पाश और बंधन ये दोनों एकार्थक हैं । बंधन के जितने हेतु हैं वे सब पाश हैं । उनमें जो स्थित हैं वे पार्श्वस्थ हैं, यह भी पार्श्वस्थ का अन्य पर्याय (एक अर्थ) है।
दुविधो खलु पासत्थो, देसे सव्वे य होइ नायव्वो।
सव्वे तिण्णि विगप्पा देसे सेज्जातरकुलादी ।। ४३४० ।। पार्श्वस्थ दो प्रकार के जानने चाहिए१. देशपार्श्वस्थ, २. सर्वपार्श्वस्थ,
देशपार्श्वस्थ शय्यातर कुलादि में एषणा करता है । सर्वपार्श्वस्थ के तीन विकल्प हैं। सर्वपार्श्वस्थ
दंसण-णाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं ण उज्जमति ।।
एतेण उ पासत्थो, एसो अण्णोवि पज्जाप्रो ।। ४३४२ ।। १. दर्शन, २. ज्ञान, ३. चारित्र की आराधना में जो आलसो होता है अर्थात् उनकी आराधना में उद्यम नहीं करता है तथा उनके अतिचार अनाचारों का सेवन करता है वह सर्वपार्श्वस्थ है।
वह सर्वपार्श्वस्थ सूत्रपौरुषी, अर्थपोरुषी नहीं करता है, सम्यग्दर्शन के अतिचार शंका, कांक्षा आदि करता रहता है। सम्यक्चारित्र के अतिचारों का निवारण नहीं करता है। इसलिए वह सर्वपार्श्वस्थ है।
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