________________
चतुर्थ उद्देशक]
[१११ गाथा-पासत्थ अहाछंदे, कुसील ओसण्णमेव संसत्ते।
पियधम्मो पियधम्मसु चेव इणामो तु संसत्तो ॥ ४३५० ।। जो पासत्थ, अहाछंद, कुशील और प्रोसण्ण के साथ मिलकर वैसा ही बन जाता है तथा प्रियधर्मी के साथ में रहता हुआ प्रियधर्मी बन जाता है इस तरह की प्रवृत्ति करने वाला “संसक्त" कहलाता है।
गाथा-पंचासवपवत्तो, जो खलु तिहिं गारवेहि पडिबद्धो।।
इत्थि-गिहि संकिलिट्ठो, संसत्तो सो य णायव्वो ॥४३५१ ।। जो हिंसा आदि पांच आश्रवों में प्रवृत्तं होता है । ऋद्धि, रस, साता इन तीन गौं में प्रतिबद्ध अर्थात् भाव प्रतिबद्ध होता है। स्त्रियों के साथ संश्लिष्ट अर्थात् प्रतिसेवी होता है । गृहस्थों से संश्लिष्ट होता है अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से या परोक्ष रूप से गृहस्थ के परिवार, पशु आदि के सुख-दुःख संबंधी कार्य करने में प्रतिबद्ध हो जाता है, इस प्रकार जैसा चाहे वैसा बन जाता है वह 'संसक्त' है ।
चणि---''अहवा–संसत्तो अणेगरूवी नटवत् एलकवत् ।
जहा णडो पट्टवसा अणेगाणि रूवाणि करेति, ऊरणगो वा जहा हालिदरागेण रत्तो, धोविउं पुणो गुलिगगेरुगादिरागेण रज्जते एवं पुणो वि धोविउं अण्णोण्णण रज्जति एवं एलगादिवत् बहुरूवी ।
भावार्थ ---जो नट के समान अनेक रूप और भेड़ के समान अनेक रंगों को धारण कर सकता है एवं छोड़ सकता है, ऐसा बहुरुपिया स्वभाव वाला "संसक्त" कहा जाता है ।
५. नितिय-जो मासकल्प व चातुर्मासिककल्प की मर्यादा का उल्लंघन करके निरंतर एक ही क्षेत्र में रहता है, वह "कालातिक्रांत-नित्यक" कहलाता है, तथा मासकल्प और चातुर्मासिक कल्प पूरा करके अन्यत्र दुगुणा समय बिताये बिना उसी क्षेत्र में पुनः आकर निवास करता है वह "उपस्थाननित्यक" कहलाता है। प्राचा. श्रु. २ अ. २, उ. २ में कही गई उपस्थान क्रिया का तथा कालातिक्रांत क्रिया का सेवन करने वाला "नित्यक"-"नितिय" कहलाता है । अथवा जो अकारण सदा एक स्थान पर ही स्थिर रहता है, विहार नहीं करता है वह नित्यक कहा जाता है । विशेष वर्णन के लिये भाष्यकार ने दूसरे उद्देशक के "नितियावास" सूत्र का निर्देश कर दिया है।
इन १० सूत्रों का क्रम भिन्न-भिन्न प्रतियों में भिन्न-भिन्न है । किन्तु भाष्य चूर्णि के अवलोकन से उपरोक्त क्रम ही उचित प्रतीत हुअा है । यथा गाथा--"पासत्थोसण्णाणं, कुसील संसत्त नितियवासीणं ।
जे भिक्खू संघाडं, दिज्जा अहवा पडिच्छेज्जा ॥" १८२८ ॥ इन दस सूत्रों की यह प्रथम भाष्य गाथा है । इसमें तथा इसके पूर्व सूत्रस्पर्शी चणि है, दोनों में सूत्रक्रम समान है तथा भाष्य गाथा १८३० में भी यही क्रम है ।
चूणि के साथ के मूल पाठ में तथा तेरापंथी महासभा द्वारा संपादित "णिसीहज्झयणं" में णितियस्स के बाद "संसत्तस्स" के सूत्रों को रखा है। इसके कारणों का स्पष्टीकरण वहां नहीं किया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |