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[निशीथसूत्र है । वे भी आवश्यकता का औचित्य समझकर और परिमाण का निर्णय करके विगय सेवन की आज्ञा देते हैं। प्राचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय की भी आज्ञा ले सकते हैं। क्योंकि ये दोनों पदवीधर गीतार्थ ही होते हैं । इन दोनों की अनुपस्थिति में जो प्रमुख गीतार्थ हो उसकी भी आज्ञा ले सकते हैं। गीतार्थ की अधीनता या सान्निध्य के बिना किसी भी साधु को विचरण करना भी नहीं कल्पता है।
३. अण्णयरं विगइं-पांच विगय में से कोई भी विगय । पांच विगय निम्न हैं-१. दूध, २. दही, ३. घृत, ४. तैल और ५. गुड़-शक्कर ।
ठाणांग सूत्र के नवमें ठाणे में ९ विगय कहे हैं और उनमें से चार विगयों को चौथे ठाणे में महाविगय कहा है । अतः अर्थापत्ति से शेष ५ ही विगय कही जाती है । चार महाविगय हैं
१. मक्खन, २. मधु, ३. मद्य, ४. मांस । इनमें से दो मद्य-मांस अप्रशस्त महाविगय तो साधक के लिए सर्वथा वयं हैं, क्योंकि मद्य-मांस के आहार को ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में नरक गति का कारण कहा गया है।
दशवै. च. २, गा. ७ में साधु को "अमज्जमंसासि" कहा है। अर्थात् साधु मद्य मांस का आहार नहीं करने वाला होता है।
साधारणतया पांच विगयों का सेवन वयं है तो महाविगय के सेवन का तो प्रश्न ही नहीं रहता । फिर भी मधु, मक्खन महाविगय सर्वथा अग्राह्य नहीं है ।
अनिवार्य आवश्यकता होने पर ही अाज्ञा लेकर पांचों विगयों का सेवन किया जा सकता है और दो प्रशस्त महाविगयों का सेवन रोगातंक आदि के बिना नहीं किया जा सकता है । आगमों में विगयनिषेध के निम्न पाठ हैं१. लहवित्ती सुसंतुठे।
-~-दशवै. अ. ८, गा. २५ २. पणीयरसभोयणं विसं तालउडं जहा ।
--दशवै. अ. ८, गा. ५७ ३. पंताणि चेव सेवेज्जा, सीयपिंडपुराणकुम्मासं । ___ अदु बुक्कसं पुलागं वा, जवणट्टाए निसेवए मथु। -उत्तरा. अ. १, गाथा १२ ४. णो हीलए पिडं नीरसं तु, पंतकुलाइं परिव्वए स भिक्खू । --उत्तरा. अ. १५, गा. १३ ५. पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवड्डणं ।। बंभचेररओ भिक्खू , निच्चसो परिवज्जए।
------उत्तरा. अ. १६, गा. ७ ६. दुद्ध दही विगइओ, आहारेइ अभिक्खणं । ___अरए य तवोकम्मे, पावसमणे त्ति वुच्चइ ।
--उत्तरा. अ. १७, गा. १५. ७. अभिक्खणं णिविगइं गया य ।
--दश. चू. २. गा. ७ ८. रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा गराणं। --उत्तरा. अ. ३२, गा. १०. ९. विगई णिज्जहणं करे।
-उत्तरा. अ. ३६, गा. २५५ १०. तओ नो कप्पति वाइत्तए-अविणीए, विगइपडिबद्धे, अविओसविअ पाहुडे ।
-बृहत्. उ. ४
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