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[निशीथसूत्र
किसी की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए या किसी का अहित करने के लिए या स्वार्थ से वश में करना अप्रशस्त कारण है । इसका प्रायश्चित्त अधिक है।
सूयगडाँग सूत्र श्रु० १, अ० २, उ० २, गा० १८ में भी यह बताया है कि"संसग्गि असाहु राइहिं, असमाही उ तहागयस्स वि ।"
'संयम साधना में लगे हुए साधक के लिए राजाओं का परिचय तथा उनकी संगति ठीक नहीं है क्योंकि इनका परिचय या संगति संयम में असमाधि पैदा करने का कारण है।' अतः साधक को इन विशिष्ट व्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क नहीं करना चाहिए।
धर्मश्रवण आदि के लिए राजा आदि स्वतः पावें तो उन्हें धर्मानुरागी बनाने में कोई दोष नहीं है। राजा आदि को प्रशंसा करने का प्रायश्चित्त
६. जे भिक्खू "रायं" "अच्चीकरेइ" अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ । ७. जे भिक्खू "रायारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ । ८. जे भिक्खू "नगरारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ । ९. जे भिक्खू "निगमारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ । १०. जे भिक्खू "सव्वारक्खियं" अच्चीकरेइ, अच्चोकरेंतं वा साइज्जइ ।
६. जो भिक्षु राजा की प्रशंसा-गुण-कीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है ।
७. जो भिक्षु राजा के अंगरक्षक की प्रशंसा-गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है।
८. जो भिक्षु नगररक्षक की प्रशंसा-गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है।
९. जो भिक्षु निगमरक्षक की प्रशंसा-गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है ।
१०. जो भिक्षु सर्वरक्षक की प्रशंसा-गुणकीर्तन करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन-अच्चीकरेइ-राजा के सामने या पीछे उसके वीरता आदि गुणों की प्रशंसा करना । ये सूत्र अत्तीकरेइ सूत्रों से सम्बन्धित हैं। अर्थात् वश में करने के एक तरीके का कथन इस सूत्र में हुअा है । वस्तुतः किसी भी व्यक्ति को अपना बनाने का सबसे सरल तरीका यह है कि उसके सामने या पीछे उसकी प्रशंसा की जाय । अतः ये "अच्चीकरेइ के प्रायश्चित्त सूत्र भी" अत्तीकरेइ सूत्र के पूरक हैं, ऐसा समझना चाहिए ।
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