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दूसरा उद्देशक]
[४७ ___ विवेचन-पूर्व-पश्चात्संस्तव दोष, उत्पादन के सोलह दोषों में है। इस दोष को सेवन करने वाले साधु-साध्वियों को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है ।
पूर्वसंस्तव--भिक्षा ग्रहण करने से पूर्व भिक्षादाता की प्रशंसा करना 'पूर्वसंस्तव' दोष है । इसके पीछे साधु का संकल्प यह होता है कि 'प्रशंसा करने से वह श्रेष्ठ सरस आहार देगा' ।
कई साधु-साध्वियां दाता की प्रशंसा न करके अपनी ही प्रशंसा करते हैं । वे अपने जाति-कुल की, ज्ञान, ध्यान की या तप आदि की चमत्कार भरी गरिमा बताकर दाता को प्रभावित करते हैं जिससे उन्हें सदा सम्मानपूर्वक यथेष्ट आहार मिलता रहे और परिचय बना रहे । पश्चात्संस्तव
भिक्षा ग्रहण करने के बाद दाता की प्रशंसा करना ‘पश्चात्संस्तव' दोष है। ऐसा करने में साधु का तात्पर्य यह होता है कि 'बाद में जब कभी भिक्षा के लिए आवें तब भक्तिभाव पूर्वक आहार मिलता रहे। इस प्रकार आहारप्राप्ति के लिए दाता की प्रशंसा करना साधु की निस्पृहवृत्ति को दूषित करना है इसलिए दाता की ऐसी प्रशंसा न करें।
धार्मिक संस्कार वृद्धि हेतु सुपात्र दान का स्वरूप, विधि तथा उसका फल बताना, धर्मजागृति बढ़ाना जिससे भक्तिभाव बढ़े तो वह दोष रूप नहीं होकर गुण रूप ही होता है, उससे तो धर्मप्रभावना तथा निर्जरा होती है । भिक्षाकालपूर्व स्वजन-गृहप्रवेश प्रायश्चित्त
३९. जे भिक्खू समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे पुरे संथुयाणि वा, पच्छा संथयाणि वा कुलाई पुव्वामेव भिक्खायरियाए अणुप्पविसइ अणुपविसंतं वा साइज्जइ ।
३९. जो भिक्षु स्थिरवास रहा हुआ हो, मासकल्प आदि रहा हुआ हो या ग्रामानुग्राम विहार करते हुए कहीं पहुँचा हो, वहां पर अपने पूर्व परिचित या पश्चात् परिचित कुलों में भिक्षा काल के पूर्व ही प्रवेश करता है या प्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता है । (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।)
विवेचन---जिस क्षेत्र में किसी स्थिरवासी स्थविर भिक्षु के, किसी मासकल्पवासी भिक्षु के या किसी ग्रामानुग्रामविहारी भिक्षु के पितृ-मातृ पक्ष के अथवा श्वसुर पक्ष के स्वजन परिजन रहते हों तो उसे वहां भिक्षाकाल के पूर्व भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। यदि जावे तो लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
भिक्षाकाल के पूर्व जाकर पुनः भिक्षाकाल में जाने से औद्देशिक, क्रीत आदि दोषों के लगने की सम्भावना रहती है।
इसी प्रकार वहां कहीं साधु-साध्वियों के रागानुबन्ध वाले गृहस्थ रहते हों तो वहां भी भिक्षाकाल के पूर्व जाकर पुनः भिक्षाकाल में जाने से पूर्वोक्त दोष लगने की सम्भावना रहती है।
भिक्ष भिक्षाकाल के पूर्व उक्त कुलों में जाता है तो उसके मन में यह संकल्प रहता है कि "पहले जाने से ये लोग मेरे लिए कुछ विशेष सामग्री बनाएंगे और मैं पुनः भिक्षाकाल में जाकर
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